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आत्मनिर्भर”- हमारे सब्जी वाले भैया

आजकल भारत में श्रमिकों का पुनः अपने मूल निवास की तरफ पलायन राष्ट्रीय मुद्दा बना हुआ है.. हर कोई अपनी समझ के अनुसार इसकी व्याख्या कर रहा है.. कोई इसे मानवीय अपराध बता रहा है तो कोई राजनीतिक प्रसंग.. कोई इससे खुश है तो कोई दुखी पर सब एक बात पर करीब-करीब सहमत है कि यह “रोज़गार” का मुद्दा तो अवश्य है और भविष्य में इस पलायन के विभिन्न परिणाम भी देखने को मिलेंगे।

परंतु एक और बात इस विषय के साथ जुड़ गयी और वो है भारत का “#आत्मनिर्भर” अभियान.. आखिर क्या है यह अभियान? क्या पहले हम आत्मनिर्भर नहीं थे या यह एक तरह से अपने देश के लोगों के प्रति जवाबदारी से पीछा छुड़ाना है कि अब सरकारें हमें रोज़गार उपलब्ध नहीं करवा सकती तो हमें खुद ही अपनी लड़ाई लड़ने के लिए तैयार हो जाना चाहिए.. पर क्या “समस्या” सिर्फ इतनी ही है या कुछ और भी इससे जुड़ा हुआ है..

चलिये मैं इक किस्सा सुनाती हूँ… करीब 25 वर्ष पहले हमारे घर की गली में एक “सब्जी वाले भैया” आने लगे.. व्यवहार से बड़े कुशल और हिसाब किताब में माहिर.. मुझे उनसे बात करके बहुत अच्छा महसूस होने लगा तो इक दिन बातों-बातों में पता चला की वो “बी-कॉम ग्रेजुएट” है.. मेरे लिए तो यह बहुत चौकाने वाली बात थी की एक बी-कॉम पड़ा लिखा लड़का गलियों में ठेले पर सब्जी क्यों बेच रहा है फिर इनके इतना पड़ने लिखने का क्या फायदा हुआ?? मैंने उनसे यह प्रश्न कर लिया.. उनका जवाब आज के हालात पर बहुत कुछ सच्चाई 25 साल पहले ही बयां कर चुका था… उन्होंने कहा कि भारत में मेरे जैसे लाखों करोड़ों लड़के लड़कियों ने ग्रेजुएशन किया है तो सबको नौकरी मिल जाये ऐसा संभव नहीं है और इसमें बहुत समय भी व्यर्थ हो जाता है तो मैं हाथ पर हाथ धर कर तो इंतज़ार नहीं कर सकता इसलिए मैंने “स्वमं का व्यापार” करने का निर्णय लिया और यह सब्जी का ठेला किराये पर ले लिया है और अब में आत्मनिर्भर हूँ… किसी के द्वारा रोजगार देने के लिए मोहताज़ नहीं हूँ.. मेरा “आत्मसम्मान” अभी भी मेरे साथ है… आज 25 वर्ष बाद भी वो इसी “व्यापार” को बहुत सम्मान से चला रहे है जिसने उन्हें जयपुर शहर में अपना “तिमंजिला घर” और “दो बच्चों” की अच्छी “परवरिश” करने का अवसर प्रदान किया.. आज जब इस संकट की घडी में हम सब अपने घरों में बंद है…किसी पर भी विश्वास नहीं कर पा रहे.. सबको शक़ की निगाह से देख रहे है उस समय में मेरे सब्जी वाले भैया को उनके ग्राहक फ़ोन कर के आग्रह कर रहे है कि वो उन्हें सब्जियां देने आये.. आज जब उन्होंने मुझे यह बात कही की अब मैं रूपए कमाने के लिए सब्जी नहीं बेचता बल्कि अपने ग्राहकों का मन रखने के लिए ही आता हूँ तो मैंने भी इस बात में सहमति जताई कि मैं भी वास्तव में किसी और से सब्जी लेने के बजाये आपका ही इंतज़ार करती हूँ.. क्योंकि अब वो मेरे “भैया” ही तो है…

तो “आत्मनिर्भर” होना वास्तव में अपने “आत्मसम्मान” की “रक्षा” ही तो है…”शिक्षा” हमारी “आर्थिक उन्नति” की “आधार” एवं ‘हथियार” होनी चाहिए ना की एक “बाधा”… भारत का तो इतिहास गवाह है कि जब हम “सोने की चिड़िया” होते थे तो क्यों होते थे?? इसी आत्म निर्भरता की वजह से ही तो हमने विश्व में वो “गौरव” प्राप्त किया था।

तो “जब जागो तभी सवेरा” के धुन पर सवार होकर आज “हम भारत के लोगों” को पुनः “सोने की चिड़िया” बनने का “सुअवसर” प्राप्त हो रहा है.. अगर “स्वामी विवेकानंद” जी के शब्दों में कहूँ तो “जागो उठो चलों” और तब तक “ना रुको” जब तक “लक्ष्य” हासिल न हो जाये… याद रखिए “अभी नहीं तो फिर कभी नहीं”।

उज्जवल भविष्य की शुभकामनाओं सहित 🙏🙏

प्रेरणा की कलम से ✍️✍️

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preranaarorasingh

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