बगरू ( Bagru) – इतिहास को सहेजता वर्तमान
जयपुर शहर से दक्षिण-पश्चिम दिशा में अजमेर रोड पर लगभग 30 किमी की दूरी पर एक कस्बा है-बगरू। चमचमाते नेशनल हाईवे नं-8 से सटकर लगा यह कस्बा आकार में भले छोटा है, लेकिन है समृद्ध। अपनी कला, संस्कृति और परंपराओं की जड़ों को आज भी बगरूवासी अपने खून पसीने से सींचते हैं। हाथ से कपड़े पर की जाने वाली ब्लॉक प्रिंटिंग ने बगरू को अंतर्राष्ट्रीय पहचान दिलाई है। लेकिन ब्लॉक प्रिंटिंग के इतर भी कई कहानियां बगरू का चेहरा और उज्ज्वल बनाती हैं। इस रविवार हमने बगरू-दर्शन कर एक प्रयास किया बगरू का यह दमकता चेहरा करीब से देखने और अब इसे आपके सामने लाने का।
बगरू ( Bagru ) का इतिहास :
इतिहासे के पन्नों में बगरू का उल्लेख बारहा हुआ है। बगरू प्रिंट को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाने वाले छींपा समुदाय की बहुलता है इस कस्बे में। छींपा समुदाय के लोग सदियों से प्राकृतिक तरीकों से ब्लॉक प्रिंटिंग का कार्य कर रहे हैं। बगरू में इस समुदाय के लोग राजस्थान और राज्य के नजदीकी प्रदेशों से आकर यहां बसे। अठारवीं सदी में जयपुर शहर में हटवाड़े की सुविधा मिलने से इन कारीगरों में उल्लास बढा। बगरू प्रिंट का इतिहास लगभग पांच सदियों पुराना माना जाता है।
छींपा समुदाय ने अपनी परंपराओं पर टिके रहकर इस खूबसूरत प्रिंट को विश्व के कोने-कोने में पहुंचाया है। आज भारी भरकम मशीनों से मिनटों में तैयार होता हजारों मीटर कपड़ा, प्रिंट के नए मशीनी आयाम, इंटरनेट पर ब्रांडिंग, अंतर्राष्टीय स्तर पर प्रचार, निर्यात की सुलभ और तीव्रगामी सुविधाएं, फैलते अंतरदेशीय व्यापार और बाजार तथा सिमटती दुनिया के युग में भी छींपा लोग हाथ से की जाने वाली इस कलात्मक कारीगरी को तल्लीनता से रूपाकार प्रदान करते हैं।
बैलगाड़ी से रातभर का सफर :
बगरू में जन्मे और तीन बार यहां सरपंच रह चुके वरिष्ठ पत्रकार सीताराम झालानी ने बगरू प्रिंट के इतिहास पर स्मृतिपात करते हुए बताया कि एक वक्त था जब छींपा समुदाय के लोग शुक्रवार की शाम बैलगाड़ी में बगरू प्रिंट की फड़द लादकर बगरू से जयपुर की राह पकड़ते थे। बैलगाड़ी रातभर चलती। रास्ते में दो जगह विश्राम का विकल्प भी होता। भांकरोटा और फिर पीडब्ल्यूडी के कुएं पर। इसके बाद बैलगाड़ी के पहिए चांदपोल गेट के बाहर ही रूकते। सुबह निश्चित समय पर गेट खुलता और ये लोग फड़दों को गणगौरी बाजार में शनिवार को लगने वाले हटवाडे तक ले जाते और बेचते। लौटते वक्त शाम को दैनिक उपभोग की वस्तुएं बाजार से खरीदी जाती और बैलगाड़ी से रातभर चलकर रविवार सुबह वापस बगरू पहुंचते। गणगौरी बाजार के फुटपाथों पर आवाज लगाकर बेचा जाने वाले बगरू प्रिंटेड कपड़ा आज पेरिस, मास्को और लंदन जैसे शहरों के प्रतिष्ठित संग्रहालयों की शोभा बढा रहा है।
Video: बगरू
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भैरूं भगत की भागीरथी :
कपड़े पर ब्लॉक प्रिंटिंग के कार्य में पानी बहुत बार और प्रचुर मात्रा में इस्तेमाल होता है। लगभग साठ साल पुरानी बात है। तब एक नाले से पानी बहकर बगरू तक आता था और छींपा समुदाय के लोग प्रिंटिंग में इसी पानी का प्रयोग करते थे। लेकिन जागीरदारों की आपसी नोक-झोंक की गाज इस नाले पर पड़ी और नाला पाट दिया गया। तात्कालिक मुख्यमंत्री हीरालाल शास्त्री ने नाले को फिर से खुलवाने का ऐलान किया। लेकिन जब तक ऐलान की क्रियान्विती होती उनकी सरकार सत्ता में नहीं रह सकी। बगरू की आस धूमिल होने लगी। बगरू प्रिंट पर भी संकट के बादल मंडराने लगे। किंतु रैगर जाति के एक स्थानीय किसान भैरूं भगत ने शास्त्री के कहे का मान रखने के लिए एक भागीरथी प्रयास किया। उसने एक कुदाल उठाई और नाले को खोदना आरंभ किया। भैरूं नाले को खोदते हुए बगरू ले आया। एक बार फिर पानी की लहरें बगरू पहुंची और कपड़े पर बूटियां खिलने लगी। वर्षों तक वह नाला बगरू प्रिंट के लिए गंगा बना रहा। अपने गांव के लिए ऐसी तपस्या का यह अनुपम उदाहरण भी बगरू के इतिहास में ही देखने को मिलता है।
बगरू प्रिंट – एक संस्कृति
कोई भी कार्य-व्यापार जब पीढियों की सीढियों पर चढता हुआ एक काल-खण्ड पार कर जाता है तो वह महज कार्य नहीं रहता बल्कि परंपरा बन जाता है। और जब परंपराएं सदियों की सीमाएं लांघ जाती हैं तो संस्कृति बन जाती हैं। बगरू प्रिंट भी अब एक ऐसी संस्कृति बन चुका है जिसने अपनी मूलरूपता को कायम रखते हुए काल-खण्ड पार किये हैं और सदियों का सफर तय किया है।
बगरू में छींपा समाज के लोग बगरू प्रिंट तैयार करते हैं। छींपा बगरू की मूल आबादी का बड़ा हिस्सा हैं। पुराने कस्बे के दक्षिण में इनकी पूरी एक बस्ती ब्लॉक प्रिंटिंग के कार्य में जुटी है। कई पीढियों से ये लोग कलात्मक ब्लॉक से कपड़े पर बूटियां और किनार मुद्रित करने का कार्य कर रहे हैं।
छींपों के मोहल्ले का दौरा करते हुए हमारी मुलाकात हुई वल्लभ कोठीवाल से। ब्लॉक प्रिंटिंग में कोठीवाल ने वर्ष 2003 में साड़ी पर सौदागरी डिजाईन के लिए राष्ट्रीय अवार्ड जीता। उनके पिता रामस्वरूप और माता भंवरीदेवी ने भी राज्य और राष्ट्रीय स्तर के कई अवार्ड जीते हैं।
कोठीवाल बगरू प्रिंट संस्कृति का एक अहम हिस्सा हैं। उन्होंने हमें इस कला की बारीकियों से अवगत कराया।
बकौल कोठीवाल बगरू प्रिंट की सबसे बड़ी विशेषता है डाईंग में इस्तेमाल होने वाले प्राकृतिक रंग। इन रंगों में केमिकल का एक छींटा भी इस्तेमाल नहीं होता। बगरू प्रिंट में मुख्यत: लाल, काला और भूरा रंग प्रयुक्त होता है। इन रंगों का निर्माण भी ठेठ देशी और प्राकृतिक तरीके से किया जाता है। लाल रंग फिटकरी और आल की लकड़ी से, काला रंग घोड़े की नाल को गुड़ के साथ पानी में भिगोकर तथा भूरा रंग थोथा खनिज और लाल रंग को मिलाकर तैयार किया जाता है।
कपड़े को अतिरिक्त और अनावश्यक प्रिंटिंग से बचाने के लिए दाबू तकनीक का इस्तेमाल भी किया जाता है। दाबू एक प्रकार का पेस्ट है जो घुन लगे गेहूं के पाउडर, चूना, गोंद और काली मिट्टी को गूंथकर तैयार किया जाता है। इस पेस्ट का लेप करने पर ब्लॉक से की जाने वाली प्रिंट कपड़े पर उन जगह नहीं उतरती जिस जगह को डिजाइन के लिए कारीगर खाली छोड़ना चाहते हैं।
कपड़े पर छपाई का काम परंपरागत ढंग से लकड़ी के स्टैम्पनुमा औजारों से किया जाता है जिन्हें ब्लॉक कहते हैं। इन ब्लॉक के निचले भाग पर कलात्मक डिजाइनें उत्कीर्ण होती हैं। इन डिजाईनों की पहचान कैर, आम, अनार, नरगिर, चकरी, साथिया, सूरज और पतासा बूटी आदि अनेक नामों से की जाती है।
वस्त्रों पर इन ब्लॉक से प्रिंट मुद्रित करने का कार्य कारखानों में किया जाता है। इन कारखानों में सफेद कपड़े को हरड़ या हल्दी के पानी में घंटों भिगोकर बैकग्राउण्ड फेब्रिक तैयार किया जाता है। इसके बाद सुखाकर इस्त्री कर साढ़े पांच से छह मीटर लम्बी टेबल पर बिछाया जाता है। इस टेबल पर पहले से टाट, हैण्डलूम कपड़ा और अछाड़ा वस्त्र की कई परतें होती हैं जो ब्लॉक का दबाव सहने और कलर को ज्यादा फैलने से रोकने का काम करती हैं। टेबल पर बिछे वस्त्रों को पिन-अप किया जाता है ताकि प्रिंट उकेरते समय कपड़ा हिले नहीं। इसके बाद सिद्धहस्त करीगर टेबल के चारों ओर खड़े होकर कपड़े पर ब्लॉक से वांछित डिजाइन उकेरने का कार्य करते हैं। हर कारीगर के साथ एक ट्राली होती है जिसमें रंग विशेष की ट्रे रखी होती है। इसी ट्रे में ब्लॉक को गीलाकर कपड़े पर मुद्रित किया जाता है।
एक साड़ी पर नार्मल प्रिंट करने में तीन कारीगरों को लगभग डेड घंटा लगता है। ये कारीगर एक दिन में औसतन आठ साडियां तैयार करते हैं। एक दिन का मेहनताना इन्हें तीन सौ रूपए तक मिलता है।
बगरू प्रिंट वर्तमान में घाघरा, चोली, ओढनी, स्कर्ट, सलवार सूट, साड़ी जैसे महिला परिधानों के साथ पुरूषों के जैकेट, कोटियां, कुर्ते पायजामे, धोतियां, दुपट्टे और दुशालों में भी खूब देखने को मिलता है। इसके अलावा नेपकीन, मेट, बेडशीट, पिलो कवर, परदे, मेजपोश आदि पर भी बड़ी मात्रा में बगरू प्रिंट उत्कीर्ण किया जा रहा है जिसकी मांग देश के साथ साथ दुनिया के भी कोने-कोने में है।
बगरू प्रिंट शुरू से इतना व्यापक नहीं था। पहले यह सिर्फ महिला परिधानों यानि कि केवल घाघरा और ओढनी में ही प्रयुक्त होता था जिसे फड़द कहते थे। ग्रामीण महिलाओं में फड़द क्रेज शुरू से ही बेहिसाब था।
पहले यह प्रिंट सूती वस्त्रों पर बहुतायत से मुद्रित होता था लेकिन समय और मांग बदलने के साथ साथ यह प्रिंट कॉटन से सिल्क, चंदेरी, हॉफ कॉटन, टसर और माहेश्वरी सिल्क पर भी उतरता चला गया। खूबसूरत डिजाईनों के साथ साथ ईको फ्रेंडली कपड़ा और नेचुरल कलर्स की खूबी होने के कारण यह प्रिंट तेजी से शहरी महिलाओं और विदेशियों की खास पसंद बनता चला गया।
देश विदेश में बगरू प्रिंट की धाक होने के कारण स्थानीय, राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय बाजार में इसकी मांग तेजी से बढी। इसी मांग के चलते बगरू प्रिंट का कार्य करने वालों के बीच स्पर्धा भी तेज हुई। मांग के अनुरूप उत्पाद की उपलब्धता के भार ने स्क्रीन प्रिंटिंग यानि की बगरू प्रिंट की मशीनी नकल करने वालों के हौसले भी बढाए हैं और तादाद भी। स्क्रीन प्रिंटिंग में तीव्र केमिकलों का प्रयोग भी किया जाता है जो ना तो ईको फ्रेंडली हैं और ना ही स्किन फ्रेंडली।
बगरू प्रिंट के सामने स्क्रीन प्रिंटिंग के अलावा दूसरी चुनौति है मीडिएटर्स की। ये मीडिएटर्स छींपा समाज के मूल कारीगर और देश विदेश में बैठे बगरू प्रिंट के ग्राहकों के बीच की कड़ी होते हैं। कारीगरों से सस्ते में माल खरीद कर देश और विदेश के ऊंचे शोरूमों में पहुंचाना और मनमानी कीमत वसूल करना इनका पेशा है। बगरू प्रिंट की ऑरिजनलिटी और क्वालिटी का मोटा मुनाफा या तो इन मीडिएटर्स ने कमाया है या फिर उन शोरूम मालिकों ने जो विदेशी ग्राहकों को इन प्रिंट से प्रभावित कर लेते हैं। जबकि राष्ट्रीय अवार्ड से सम्मानित कारीगर अब भी इस कला को बचाने, सहेजने और बढाने के लिए जूझ रहे हैं।
सरकार ने बगरू प्रिंट को बढावा देने के लिए कई ठोस कदम उठाए हैं। देशभर में हैण्डलूम और क्राफ्ट मेलों का आयोजन किया जाता है। एग्जीबीशन लगाए जाते हैं। सरकारी शोरूम भी इन उत्पादों को उचित कीमत पर खरीद रहे हैं। राजस्थान में राजस्थली और मध्यप्रदेश में मृगनयनी ऐसे ही शोरूम हैं।
बगरू प्रिंट को लेकर देश विदेश में बढ रही मांग और सरकारी प्रयासों ने छींपा समुदाय में एक आस जगाई है लेकिन बढती महंगाई, पानी की कमी और मंहगा होता श्रम अभी भी कुछ चुनौतियां हैं। जिन लोगों ने इस प्रिंट को आसमान की बुलंदियों तक पहुंचाया है उन्हें इसके वास्तविक लाभ का बहुत थोड़ा हिस्सा मिल रहा है। वल्लभ कोठीवाल आर्त मन से कहते हैं-’हमारे पुरखों ने यह परंपरा आजीवन निभाई, अब हम जैसे कारीगरों ने इसे आगे बढाने का जिम्मा उठाया है लेकिन कहना मुश्किल है कि हमारे बच्चे इसे आगे ले जा पाएंगे या नहीं।’
वाणिज्यिक युग में लाभ ही एक परंपरा है, यही आज की संस्कृति भी है।
बगरू – झलकियां
संकरी गलियां…सीसी रोड
पुराने कस्बे बगरू की बसावट नियोजित नहीं है लेकिन संकरी गलियों का जाल कस्बे के मोहल्लों को आपस में जोड़ता है, जहां पुराना बाजार पल्लवित है। बगरू की गलियों में सीमेंट से बनी सड़कें भी अपने आप में एक इतिहास समेटे हुए हैं। बगरू में सीमेंट की मजबूत सड़कें बनाने का श्रेय जाता है यहां से तीन बार सरपंच चुने गए सीताराम झालानी को। उन्होंने जानकारी देते हुए बताया कि इन सड़कों का निर्माण 1978-79 में आधुनिक तकनीक और अच्छे मेटेरियल से किया गया था। 1984 में बगरू के दौरे पर आए जेडीए के तात्कालिक अधिकारी केके भटनागर ने छोटे से गांव की गलियों में सीमेंट से किए गए इस उच्चस्तरीय कार्य को फंड का नुकसान कहा था। लेकिन आज 30-35 साल बाद भी अटूट जमी हुई इस सड़कों ने साबित कर दिया कि फंड बेकार नहीं गया था, बल्कि यह एक मील का पत्थर साबित हुआ था। अपने गांव के विकास के लिए प्रणबद्ध लोग इतिहास रचते हैं।
मंदिरों के नाम बाजार
कस्बे के कोने कोने में प्राचीन मंदिर दिखाई देते हैं। लगता है यहां की पुरानी गलियां इन्हीं मंदिरों को आपस में जोड़ने का कार्य करती हैं। इन्हीं गलियों में विकसित हुए बाजारों का नाम भी मंदिरों के नाम पर रखा गया है। जो गली जिस मंदिर की ओर जाती है उस बाजार का नाम उसी मंदिर के नाम पर रख दिया गया है। लक्ष्मीनाथजी के मंदिर से जुड़े बाजार का नाम लक्ष्मीनाथ बाजार, गंगामाता के मंदिर से लगे बाजार का नाम गंगा माता बाजार, रघुनाथजी के मंदिर वाले रास्ते पर रघुनाथजी का बाजार और अतिप्राचीन जुगलकिशोर जी के मंदिर जाने वाले रास्ते का नाम जुगल बाजार है। बाजारों के नाम यहां के व्यापारियों की श्रद्धा और भक्ति को भी उजागर करते हैं।
लक्ष्मीनाथ जी का मंदिर-
पुराने कस्बे के बीच लक्ष्मीनाथ भगवान का लगभग 300 वर्ष पुराना मंदिर है। मुख्य द्वार उत्तर में लक्ष्मीनाथ मार्केट की ओर खुलता है जबकि गर्भग्रह पश्चिममुखी है। गोखों युक्त सिंहद्वार, ऊंची मेहराब, छत पर बारादरी और छतरियों की शोभायमान नागर शैली दूर से ही आकर्षित करती है। मंदिर में प्रवेश करने पर एक छोटा बरामदा और चौक है, जिससे लगे जगमोहन में भी सुंदर प्रतिमाएं और तस्वीरें सजी हैं। भीतर अंत:पुर में भगवान लक्ष्मीनारायण की मनमोहिनी प्रतिमा है जिसकी सजावट देखते ही बनती है। अंत:पुर को देखने पर जयपुर के शीशमहल की याद आती है। यहां किया गया कांच का कार्य भी मंदिर की शोभा को चार चांद लगा देता है। इसी मंदिर में छींपा समाज की महत्वपूर्ण बैठकें भी आयोजित की जाती हैं।
जुगलकिशोरजी का मंदिर-
बगरू के पुराने किले के पूर्व में प्राचीर से सटा ऐतिहासिक मंदिर है जुगलकिशोरजी का। सत्रहवीं सदी के आरंभ में बने इस मंदिर की विशेषता यहां एक ही पाट पर विराजे भगवान कृष्ण और राम के विग्रह हैं। मंदिर के निर्माण के समय यहां केवल कृष्ण राधा की मूर्तियां थी लेकिन बाद में ठाकुरजी को भी भगवान कृष्ण के साथ विराजित किया गया। इस तरह इस मंदिर में द्वापर और त्रेता युगों का समन्वय होता नजर आता है जो अदभुद भी है। भगवान राम और सीता की मूर्तियां कृष्ण राधा की मूर्तियों से छोटी हैं। मंदिर का पृष्ठ भाग किले की दीवार में घुसा हुआ मालूम होता है। वरिष्ठ पत्रकार और स्थानीय निवासी हरिनारायण शर्मा ने बताया कि मंदिर किले के निर्माण से पूर्व का है। रियासत काल में गांव के जागीरदार ने मंदिर को किले की सीमा में लेने के लिए प्राचीर को इसके आगे से उठाना चाहा लेकिन भरसक प्रयासों के बावजूद भी यह अतिक्रमण सफल नहीं हो सका। कहा जाता है दिनभर लगकर कारीगर प्राचीर का निर्माण करते और रात में जाने क्या होता कि सुबह दीवार साफ मिलती। इसे भगवान का ही चमत्कार माना गया। हार कर मंदिर को किले की सीमा से बाहर ही रखा गया। मंदिर का जगमोहन गुम्बदाकार में हैं। मंदिर की शैली दक्षिण की द्रविड़ शैली से मेल खाती है। जगमोहन या मण्डप भीतर से बहुत सुंदर है। छत की ओर उठे हुए कलात्मक छल्ले आकर्षित करते हैं। साथ ही छल्लों के पत्थरों पर की गई कारीगरी भी अदभुद है। स्थानीय लोगों और व्यापारियों के मन में जुगलकिशोरजी के लिए असीम श्रद्धा है। यही कारण है कि यहां के व्यापारियों ने धन लगाकर मंदिर को भव्य प्रासाद जैसा रूप दे दिया है।
मंदिर के पुजारी मोहनदास ने बताया कि प्रतिवर्ष चैत्रमास में शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा से लेकर द्वितीया तक यहां तीन दिवसीय मेला भरता है, जिसमें हजारों की तादाद में श्रद्धालु शामिल होते हैं। तीन दिवसीय मेले की विशेषता होती है यहां बाजार में बनने वाली गर्म जलेबियां। जिनका स्वाद चखे बिना कोई मेलार्थी यहां से वापस नहीं लौटता। मेले में बगरू प्रिंट और मिट्टी के बर्तन भी ग्राहकों की प्रमुख पसंद होते हैं।
श्रीरामदेव गोशाला चैतन्य धाम-
बगरू कस्बे से बाहर अजमेर रोड पर श्रीरामदेव गोशाला है जिसमें देशी थारपारकर और गीर नस्ल की लगभग 600 गाएं हैं। बारिश में देरी के बावजूद गायों के लिए हरे चारे की व्यवस्था की गई है। गोशाला के संस्थापक और व्यवस्थापक भंवरलाल बैसरवाडिया इन गायों से अपनी संतान जैसा प्यार और व्यवहार करते हैं। एक हादसे में पुत्र को खो देने के बाद भंवरलाल ने अपना संपूर्ण जीवन गायों की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्हीं के प्रयासों का नतीजा है कि चैतन्य धाम और गोशाला परिवार समिति के अधीन पांच और गोशालाओं में लगभग साढे चार हजार गाएं परिवार के सदस्यों की तरह लाड़ प्यार और ठाठ से पल रही हैं। गायों की सार संभाल की हद यहां लगे सीसीटीवी कैमरे खुद बखुद बयान कर देते हैं। गोशाला में तैनात पशुचिकित्सक विष्णु शर्मा ने बताया कि समय समय पर गायों की चिकित्सकीय जांच की जाती है और बीमार गायों का उपचार किया जाता है। इसके साथ ही गायों के अच्छे स्वास्थ्य के लिए दवाएं भी निरंतर दी जाती हैं। गायों की सेवा के लिए 25 सेवक यहां दिन रात काम करते हैं। गायों को चारा पानी देने के साथ साथ दोनो समय गोशाला की सफाई भी की जाती है। गायों के पीने के लिए बनी खेलियों में हर दूसरे दिन पानी बदला जाता है। ये मूक गायें भी अब भंवरलाल का अपनापन समझने लगी हैं। बाहर से आए व्यक्ति का भंवर के साथ गलत व्यवहार इन गायों को पसंद नहीं आता और ये बेचैन हो जाती हैं। भंवरलाल यहां आने वाले लोगों के मन से गाय के दूध और गायों के लेकर पल रही भ्रांतियां दूर करने के साथ साथ बच्चों के मन से डर भी निकालते हैं। वे बच्चों को गायों के पास जाने और उनसे मित्रता करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। भंवरलाल का गायों के प्रति प्रेम एक अनूठी मिसाल है।
बगरू – उपजाऊ भूमि, समृद्ध मंडी
बगरू की भूमि और पानी फलों, सब्जियों और फसलों के लिए भी बेहद अनुकूल है। खासतौर पर मूंगफली, मटर, मिर्च और बैंगन की उपज में बगरू का कोई सानी नहीं। बगरू से बड़ी मात्रा में सब्जियां जयपुर की मण्डी में पहुंचती हैं। बगरू की अनाज मण्डी भी सालाना राजस्व चुकाने में ऊंचे पायदान पर रहती है। मण्डी में मूंगफली, मटर, मूंग, चना, जौ, गेहूं, सरसों, बाजरा और ग्वार की आवक अचंभित करती है। यहां की मण्डी में पुष्कर, फलौदी और जोधपुर तक के किसान अपनी मूंगफलियां और अन्य फसलें विक्रय के लिए लेकर आते हैं। कारण है यहां प्रदेशभर से मूंगफली के खरीददारों का सीधे संपर्क में होना। किसानों का उनकी फसल का आसानी से विक्रय होना और पूरा पेमेंट करंट में मिलना। इसके साथ ही ईमानदारी भरा लेन-देन बगरू मंडी की साख का प्रमुख कारक है।
रियासत काल में बगरू एक छोटा सा गांव था, लेकिन शान शौकत नवाबी थी यहां की। बगरू प्रिंट राजा-महाराजाओं और रानियों के लिए भी खास आकर्षण रखता था। सर्दी में गर्म और गर्मी में शीतलता देना बगरू प्रिंट से सजे कपड़े की खासियत है। बगरू के जगीदार जयपुर राजपरिवार के गोत्री भाई थे। इसी कारण जयपुर के बाजारों में एक गली ’बगरूवालों का रास्ता’ नाम से भी विख्यात है। असल में इस गली में बगरू के जागीरदार अथवा ठाकुर की हवेली थी।
बगरू को विकास की नई राहों पर ले जाने के श्रेय बगरू के ही कई भागीरथों को जाता है। इनमें से एक हैं बगरू में जन्मे सीताराम झालानी। पत्रकारिता में खूब नाम कमा चुके झालानी विगत 25 वर्षों से जयपुर के बारे में बारीक से बारीक जानकारी जुटाने का कार्य कर रहे हैं। वे पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों, डाक टिकटों, पुस्तकों और महत्वपूर्ण फोटोग्राफ का एक अनोखा संग्रह तैयार किया है। बगरू में वे तीन बार सरपंच रहे और फिर मुनिसिपलटी के चेयरमैन भी नियुक्त हुए। इन पदों पर रहते हुए झालानी ने बगरू प्रिंट, बगरू की गलियों का सीमेंटीकरण और बगरू मण्डी को राष्टीय स्तर पर महत्व दिलाने में जी-जान से काम किया। यहां एक शख्सियत का जिक्र भी जरूरी हो जाता है वे हैं तात्कालिक प्रशासनिक अधिकारी केएल कोचर। उन्होंने भी बगरू प्रिंट को अंतर्राष्ट्रीय ख्याति दिलाने में अहम भूमिका निबाही। उन्हीं के सतत और कारगर प्रयासों से यह प्रिंट दुनियाभर में धूम मचा सका। बगरू आज उन्नति के रास्ते पर है। रास्ते में कई मील के पत्थर भी हैं। इतिहास जब इन रास्तों पर चहलकदमी करता है तब ये मील के पत्थर दिशाबोध कराने के साथ साथ गर्व से कहते हैं-’ये बगरू है।’
टीम-मनीष हूजा, मनीष गुजराल,
आशीष मिश्रा
कैमरामैन-अशोक गुरबानी, विजेन्द्र
पिंकसिटी डॉट कॉम
नेटप्रो इंडिया
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