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राजस्थानी परंपराएं : वैज्ञानिक आधार

राजस्थानी परंपराएं : वैज्ञानिक आधार (Rajasthani Traditions : scientific base)

राजस्थान परंपराओं, उत्सवों और उल्लास की धरती है। वीर भूमि, राजपूताना और ’धोरां री धरती’  के उपनामों से मशहूर यह प्रदेश कई प्राकृतिक विभिन्नताओं से सराबोर है। एक ओर विशाल थार मरूस्थल है तो दूसरी ओर घने जंगल, यहां पठार भी हैं और जलप्रपात भी, वन भी हैं और नदियां भी, बंजर भूमि भी हैं तो उपजाऊ मैदान भी। प्रदेश को प्रकृति ने वह भरपूर संपदा दी है जो कई राज्यों के नसीब में नहीं। यह भरपूर संपदा सिर्फ प्राकृतिक वातावरण ही नहीं बल्कि हमारा सांस्कृतिक परिवेश भी है। यहां की परंपराएं भी हैं। यहां के गीत भी हैं और उत्सव भी।राजस्थान की सभी परंपराएं, रीति रिवाज, तीज त्योंहार, खानपान, पहनावा और बोली आदि सभी यहां की प्रकृति और ऋतुओं से बहुत प्रभावित हैं। इसीलिए राजस्थान के लोग जमीन से जुड़े हैं और पूरी तरह उल्लास से सरोबोर होते हैं। यहां के लोकगीतों और नृत्यों में वही उल्लास जगमगाता है।

चूंकि राजस्थान की सांस्कृतिक आबोहवा अपनी प्रकृति से बहुत प्रभावी है, इसलिए अप्रत्यक्ष रूप से यहां का परिवेश बहुत कुछ वैज्ञानिकता पर आधारित है। चौंकाने वाली बात हो सकती है कि रेतीली धरती की परंपराएं ठेठ विज्ञान पर आधारित कैसे हो सकती हैं या ये बेतुके गीत, नृत्य, त्योंहार और उत्सव किसी लॉजिक की कसौटी पर खरे उतरते हैं। तो आइये, राजस्थान की संस्कृति को विज्ञान एवं तर्क की कसौटी पर कस कर देखते हैं, और जानने का प्रयास करते हैं कि धोरों की धरती की खासियतें कितनी खास हैं-

राजस्थान के उत्सव

राजस्थान में ज्यादातर उत्सव और मेले ऋतुओं के अनुसार मनाए जाते हैं। ऋतुओं का सांस्कृतिक परिवेश पर गहरा असर पड़ता है। राजस्थान के प्रमुख उत्सव हैं तीज और गणगौर। जयपुर में ये त्योंहार प्रमुखता से मनाए जाते हैं।

तीज
श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को श्रावणी तीज कहते हैं। उत्तरभारत में यह हरियाली तीज के नाम से भी जानी जाती है। चारों ओर हरियाली का सुखद वातावरण होने के कारण मन पुलकित रहता है और महिलाएं झूला झूलती हैं। दरअसल गर्मी में खरीफ और सर्दी में रबी की फसलों की बुवाई, कटाई आदि में गांवों की महिलाओं को ढेर सारा काम खेतों में करना होता था। सावन में बारिश के मौसम महिलाओं को इस काम से छुट्टी मिलती थी। चारों तरफ की हरियाली इस अवकाश को भी सुहाना कर देती थी। इसलिए ग्रामीण महिलाएं मिलकर भगवान शिव और पार्वती का पूजन कर तीज मनाती थी। झूला झूलती, आपस में बतियाती और कई तरह के खेल खेलती। यह त्योंहार समाज में महिलाओं को खुश रहने का अपना अवसर और हक देता है। तर्क यह है कि खुश महिला परिवार की समृद्धि का कारक है।

गणगौर
गणगौर का उत्सव होली के ठीक दूसरे दिन से शुरू होता है और यह सोलह दिन तक चलता है। इस उत्सव में नवविवाहित युवतियां अपने पीहर आकर अपनी सखियों के साथ यह त्योंहार मनाती हैं। कुंआरी कन्याएं भी अच्छे जीवन साथी और सुखी दांपत्य के लिए शिव पार्वती का पूजन करती हैं। यह त्योंहार भी समाज विज्ञान के यर्थाथ को पुष्ट करता है। विवाह के तुरंत बाद अपने घर आई लड़की के मन में कई तरह के उल्लास होते हैं जिसे वह ससुराल के वातावरण में व्यक्त नहीं कर पाती। अपना उल्लास वह अपने पीहर की सखियों से बांटती है। साथ ही लड़कियों द्वारा अच्छे वर की कामना समाज को सही दिशा प्रदान करती है, जिसमें पुरुषों को यह संदेश जाता है कि महिलाएं उस पुरुष का चयन करना चाहती हैं जो स्वस्थ, समृद्ध और स्वभाव में शांत हो। जो पत्नी को खुश रख सके। इससे युवाओं में सफल होने की प्रेरणा मिलती है और अप्रत्यक्ष रूप से समाज को आर्थिक उत्थान का रास्ता मिलता है।

होली
होली का त्योंहार मार्च-अप्रैल में मनाया जाता है। रंगों का यह त्योंहार राजस्थान में भरपूर उल्लास के साथ मनाया जाता है। होली के आसपास खेतों से फसल खलिहानों में आती है और घर में धन-धान्य आता है। इस खुशी पर एक दूसरे को रंग लगाकर यह संदेश दिया जाता है कि जीवन में सुख दुख के जितने भी रंग होंगे, उन्हें हम आपस में बांटेंगे। होली समाज के भेदभावों को भी दूर करने का प्रतीक है। एक रंग में रंगे लोगों की पहचान मुश्किल होती है, इसलिए छोटे बड़े सब बराबर होते हैं। होली के मौके पर होलिका दहन भी किया जाता है। इसका तात्पर्य ये है कि समाज की समस्त बुराईयों को समाज के चौक पर लाकर जला देना चाहिए। दार्शनिक तर्क दिया जा सकता है कि समाज के लोग मिलकर, एक जगह एकत्र होकर जब सामूहिक रूप से अग्नि में अपनी फसलों की बालियां सेकते हैं तो यह एक चूल्हे पर सबके खाना पकाने के समान है। होली सामाजिक सद्भाव का उत्सव है।

राजस्थान की पोशाकें

राजस्थान की पोशाकें भी यहां की प्रकृति, मौसम, जलवायु और पारिस्थितिकी से प्रेरित होती हैं। राजस्थानी पोशाकें बहुउपयोगी भी होती हैं। आइये, राजस्थानी पोशाकों के वैज्ञानिक धरातल को खोजने का प्रयास करें।

साफा
राजस्थान में पुरूष सिर पर साफा बांधते रहे हैं। साफा सिर्फ एक पहनावा नहीं है। राजस्थान में नौ माह लगभग गर्मी पड़ती है और तीन माह तेज गर्मी पड़ती है। ऐसे में साफे की कई परतें सिर को लू के थपेड़ों और तेज धूप से बचाती हैं। राजस्थान वीरों की भूमि भी रही है। यदा कदा यहां भूमि और आन के युद्ध से भी गुजरना पड़ता था। ऐसे में आपात प्रहार से बचने में भी साफा ’हेलमेट’ का काम किया करता था। इसके अलावा साफा कूएं से पानी निकालने की रस्सी, तौलिया, चादर, छलनी, अस्त्र, सामान रखने की गठरी आदि कई रूपों में काम आता था।

कुर्ता धोती
राजस्थानी कुर्ता धोती यहां तप्त वातावरण में अनुकूल पोशाकों के काम करते हैं। कुर्ता धोती प्राय: सफेद रंग के होते हैं। सफेद रंग गर्मी को ऑब्जर्व नहीं करता और ठंडक बनाए रखता है। यही कारण है यहां सफेद धोती कुरता का प्रयोग गर्मी से शरीर को बचाने के लिए किया जाता रहा। साथ ही सूती और खुले खुले होने के कारण कुर्ता धोती पहनने वाले को विशेष आराम भी दिया करते थे। वैज्ञानिक तौर पर यहां की जलवायु में कुर्ता धोती से बेहतर कोई पोशाक नहीं है।

जूतियां
राजस्थान में जूतियां पहने का प्रचलन रहा। जूतियां मुख्यत: ऊंट की खाल से बनाई जाती थी। ये जूतियां जहां पहनने में आसान होती थी वहीं शरीर के लिए भी ये नुकसानदेह नहीं होती थी। जूतियां पैरों की शेप को सही रखने के साथ साथ सर्दी और गर्मी में पैरों को विशेष आराम दिया करती थी। सर्दियों में जूतियां गर्म और गर्मियों में ठंडी रहा करती थी। राजस्थान के लोग बरसात के मौसम में जूतियां नहीं पहनते थे। इससे चर्मरोग का खतरा रहता था और जूतियां खराब होने का डर भी।

घाघरा-चोली
राजस्थान की महिलाएं घाघरा चोली पहना करती थी। आज भी ग्रामीण इलाकों में घाघरा चोली पहनी जाती है। राजस्थानी महिलाएं आरंभ से ही बहुत कर्मशील रही हैं। ऐसे में घाघरा चोली बहुत जल्द पहना जा सकता है। साड़ी की तरह इसे पहनने में न असुविधा होती है और न ही ज्यादा समय खराब होता है। इसके साथ ही राजस्थानी महिला हमेशा कर्मशील रही है। वह घर, खेत और आजीविका जुटाने में पुरुषों का भरपूर साथ देती है। घाघरा चोली गर्मी के वातावरण में शरीर को स्वस्थ भी रखते हैं और महिलाओं की कर्मशीलता के साथी भी बनते हैं।

ओढनी
राजस्थानी ओढनी राजस्थान की परंपराओं का प्रतीक है। ओढनी न केवल महिलाओं द्वारा सिर पर ओढा जाने वाला एक वस्त्र है बल्कि यह राजस्थानी महिला के मान का प्रतीक भी है। विभिन्न त्योंहारों उत्सवों और शादी विवाह के अवसरों पर कोई भी कार्य ओढनी के बिना नहीं किया जाता। तात्पर्य यह है कि महिलाएं घाघरा चोली पहन कर चाहे पुरुषों के साथ कितना ही कार्य करें, उनपर ओढनी का मान भी जरूरी है। उनका पर्याप्त आदर करना चाहिए। ओढनी को ग्रामीण महिलाए घरेलू कार्यों में भी कई तरह से इस्तेमाल भी करती हैं।

राजस्थान में आवास

राजस्थान के आवास भी मौसम और ऋतुविज्ञान के आधार पर खरे उतरते हैं। यहां के घरों में समाज के संस्कार नजर आते हैं। यही नहीं घरों को जिस वैज्ञानिक विधि से बनाया जाता था, उसमें वे यहां के लोगों को पर्याप्त आराम और बेहतर स्वास्थ्य प्रदान करने में सहायक थे।

छान और मिट्टी की दीवारें
राजस्थान के ग्रामीण इलाकों में कच्चे मकानों का अपना विज्ञान है। इन्हें झोपड़ियां कहा जाता है। कुछ दशकों पहले तक गांवों में पक्का मकान कोई ही होता था, बाकी कच्चे मकान होते थे।  कच्चे मकानों की खासियत यह होती थी कि इनके निर्माण के लिए सामग्री अपने आसपास ही मिल जाती थी और परिवार के सदस्य ही इसका निर्माण कर लिया करते थे। मिट्टी की दीवारों को गोबर से लीपा जाता था, इससे यह सर्दी में गर्म और गर्मी में ठंडी रहा करती थी। यही काम पूस की छान किया करती थी। यह न केवल बारिश को रोकती थी बल्कि घर में पर्याप्त ऑक्सीजन बनाए रखती थी। प्राकृतिक वस्तुओं से निर्मित ये घर मानवीय स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे।

पौली
घर में मुख्यद्वार से प्रवेश करते ही एक छोटी जगह हुआ करती थी जिसे पौली कहा जाता था। मुख्य द्वार के सामने दीवार होती थी और घर के चौक का दरवाजा मुख्यद्वार के सामने न होकर एक तरफ होता था, इससे कोई भी बाहरी व्यक्ति बाहर से घर में झांक नहीं सकता था। घर में एक खुला चौक भी होता था जिसमें पौधे और फुलवारी लगाई जाती थी। घर घर में पहले गाय भैंस आदि जानवर पाले जाते थे। आज वैज्ञानिकों का दावा है कि आस पास पेड पौधे होने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है और पालतू पशु दिल की बीमारियों से बचाते हैं।

राजस्थान का खानपान

आज सभी जगह दक्षिण भारतीय, चाइनीज, थाई और विभिन्न देशों के पकवान उपलब्ध हैं। ये पकवान बहुत ज्यादा मसालेयुक्त और तैलीय होते हैं। जबकि राजस्थान की जलवायु तेज मसालों और ज्यादा तेल के भोजन के उपयुक्त नहीं है। इस तरह का भोजन राजस्थान के वातावरण में नुकसान पहुंचाता है। राजस्थान के खानपान में दाल, बाटी, चूरमा, छाछ, राबड़ी, बाजरा-जौ की रोटी, दही, लस्सी दूध, मकई और सरसों, कच्ची सब्जियां, मूली प्याज आदि शामिल हैं। ये ठेठ राजस्थानी आहार जिनमें दालें, दूध, हरी सब्जी, मिश्रित अन्न आदि शामिल है,  स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभप्रद है। राजस्थान में सर्दियों में जहां बाजरे की रोटी, मूली, गुड़ और गर्म सब्जियां व दाल बाटी चूरमा खाया जाता है वहीं गर्मी में छाछ, घाट की राबड़ी, बेजड़ की रोटी और प्याज खीरा आदि का भोजन किया जाता है। वास्तव में यह भोजन न केवल शरीर के तापमान को सही बनाए रखता है। ब्लड प्रेशर और दिल की बीमारियों से बचने का भी बेहतर उपाय है।

हजार बातें हैं जो राजस्थान को अन्य राज्यों की तुलना में बेहतर साबित करती हैं। वर्तमान में  आधुनिकता और शहरीकरण के बोझ तले दबकर युवा अपनी संस्कृति और संस्कारों से दूर हो रहा है, आवास, रहन सहन, भाषा, खानपान और दिनचर्या सब कुछ बदल रहा है। प्रकृति से दूरी बढ़ी है। हर कार्य में उपकरणों का सहयोग लिया जा रहा है। शारिरिक श्रम खत्म सा हो गया है। ऐस में अपनी जड़ों से कटने का खामियाजा भी भुगतना पड़ रहा है। जीवन से रस खत्म हो रही है। शरीर से ऊर्जा का क्षय हो रहा है और कई तरह की बीमारियों और अवसदों ने हमें घेर लिया है। हो सकता है, राजस्थान की संस्कृति, संस्कारों और परंपराओं के बारे में हम नए तरीके से सोचें और इसके वैज्ञानिक और तथ्यात्मक तत्वों के संदर्भ में इसका सम्मान करने के साथ साथ इन परंपराओं को व्यवहार में लाना आरंभ करें।


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