जयपुर पर्यटन Hindi

जयपुर के ऐतिहासिक स्थल

दुनिया के ऐतिहासिक शहरों की श्रेणी में जयपुर का नाम सम्मान से लिया जाता है। रोम और मिश्र जैसे ऐतिहासिक शहरों की श्रेणी में रखे जाने वाले इस शहर में और इसके आस पास ऐतिहासिक स्थलों की भरमार है। जयपुर एक स्थानांतरित राजधानी है। पिंकसिटी जयपुर तब अस्तित्व में आया जब आमेर में जलस्रोतों की कमी और बढ़ती जनसंख्या के दबाव के कारण शहर के विस्तार की नौबत आई। चारों ओर से पहाडियों से घिरे आमेर में विकास की संभावनाएं कम थी। इसलिए आमेर के दक्षिण में पहाडियों से लगे मैदान में एक नया शहर बसाने की योजना अमल में लाई गई। यह योजना जयपुर के लिए थी। अगर ऐतिहासिकता की बात की जाए तो जयपुर से ज्यादा महत्व आमेर का है। आमेर आज जयपुर के एक कस्बे के तौर पर देखा जाता है लेकिन आमेर का इतिहास 1100 साल पुराना है। जबकि जयपुर की उम्र अभी 300 सौ साल से भी कम है। इतिहास से प्रेम करने वालों के लिए जयपुर एक महत्वपूर्ण डेस्टीनेशन है। आइये जानें जयपुर के ऐतिहासिक स्थलों के बारे में-

आमेर

Amer-Sight-Sceneआमेर आठवीं सदीं का ऐतिहासिक शहर है। जयपुर शहर से उत्तर में लगभग 11 किमी पर बसा यह शहर अपने किलों, महलों, जलाशयों, मंदिरों, हवेलियों और पुराने बाजार के कारण विख्यात है। इतिहासविद इस शहर का दौरा इतिहास की स्थापत्य कलाओं और जनजीवन को समझने के लिए करते हैं। जयपुर शहर से इस कस्बे की कनेक्टिविटी अच्छी है। सड़क मार्ग से आमेर पूर्व में नेशनल हाईवे जयपुर-दिल्ली से जुड़ा है तो दक्षिण में जयपुर से जोड़ने वाली आमेर घाटी है। आमेर का मुख्य स्टैण्ड आमेर महल के सामने है। आमेर में अनेक मंदिर दक्षिण हिन्दू शैली के हैं। कुछ हवेलियों का स्थापत्य 8 वीं सदी के निर्माण की याद दिलाता है। यदि आप आमेर घूमना चाहते हैं तो जयपुर से सुबह जल्दी आमेर के लिए निकलें। कुछ देरे यहां की गलियों और बाजारों में घूमकर आप प्राचीन स्थापत्य का आनंद ले सकते हैं। इसके बाद आप आमेर का महल देंखें। आमेर महल को अच्छी तरह देखने के लिए कम से कम दो घंटे का समय लगता है। मुख्य स्टैंड से हाथी की सवारी करते हुए आमेर महल के मुख्य दरवाजे तक पहुंचना अपने आप में खास अनुभव है। आमेर महल में शिला माता मंदिर, दीवाने आम, दीवाने खास, शीश महल, मुगल गार्डन, सुख मंदिर, गणेश पोल और रानियों के महल देखने लायक हैं। आमेर महल के बाहर केसर क्यारी और मावठा का आनंद जरूर लें। आप आमेर महल के पिछले गेट से जीप या ऑटो से पीछे के रास्ते से कस्बे के मुख्य स्टैंड तक आ सकते हैं।

आमेर में प्राचीन समय में मुख्य जलस्रोत रहे सागर का भ्रमण करना भी सुखद अनुभूति रहेगा। अगर आप आमेर कस्बे का व्यू क्लिक करना चाहते हैं तो सागर से पहाड़ी पर बने वॉच टॉवर पर चढ़ें और फिर कैमरे का प्रयोग करें। आमेर में जगत शिरोमणि मंदिर भी स्थापत्य की दृष्टि से शानदार ऐतिहासिक स्थल है। आमेर शहर में हाथियों की भी भरमार है। यहां हाथियों की फोटो क्लिक करने का भी अपना मजा है। कस्बे की हवेलियां भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

आमेर महल

Amer-Frescoes-13जयपुर के प्रमुख ऐतिहासिक स्थलों में शुमार है आमेर का शानदार महल। अरावली की मध्यम ऊंचाई पर स्थित आमेर महल का निर्माण सोलहवीं सदी में किया गया था। इस शानदार महल को देखते हुए उस समय की उत्कृष्ट मुगल और राजपूत निर्माण शैली का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस भव्य महल की तुलना दुनिया के शानदार महलों से की जाती है। महल का बाहरी व्यू भी बहुत लोकप्रिय है और जयपुर पर्यटन से जुडे चित्रों में देखा जा सकता है। महल के बाहर की ओर केसर क्यारी  और मावठा जलाशय इसे और भी खूबसूरत बनाते हैं। आमेर महल में विशाल जलेब चौक, शिला माता मंदिर, दीवाने आम, गणेश पोल, शीश महल, सुख मंदिर, मुगल गार्डन, रानियों के महल आदि सब देखने लायक हैं। शीश महल में कांच की नक्काशी का जादू ऐसा है कि मुगले आजम से लेकर जोधा अकबर तक दर्जनों बॉलीवुड फिल्मों में अपनी धाक जमा चुका है। हाल ही आमेर महल से जयगढ जाने के लिए एक पुरानी टनल को पर्यटकों के लिए खोला गया है। आमेर महल को विजिट करते हुए जयपुर के कछवाहा राजाओं के जीवन चर्या, ठाठ-बाट और शान और शौकत का अंदाजा लगाया जा सकता है। साथ ही चारों ओर पहाडियों पर बने वॉच टॉवर्स एवं प्राचीरों को देखकर आमेर की सुरक्षा व्यवस्थाओं के इंतजाम का भी अंदाजा लगाया जाता है। जयगढ किले पर रखी जयबाण तोप एशिया की विशाल तोपों में से एक है।

जयगढ़ किला

jaigarhआमेर के खास ऐतिहासिक स्थलों में से एक है जयगढ़ किला। अरावली की पहाडियों में चील का टीला पर स्थित यह दुर्ग आमेर शहर की सुरक्षा को पुख्ता करने के लिए 1726 में महाराजा जयसिंह द्वितीय ने बनवाया था। बाद में उन्हीं के नाम पर इस किले का नाम जयगढ़ पड़ा। मराठों पर विजय के कारण भी यह किला जय के प्रतीक के रूप में बनाया गया। सुरक्षा के लिए किले पर तैनात जयबाण तोप दुलिया की सबसे बड़ी पहियों वाली तोप है। हालांकि इस तोप का इस्तेमाल कभी भी किसी युद्ध के लिए नहीं किया गया। लगभग पचास टन भारी और सवा छह मीटर लम्बाई की इस विशेष तोप को यहीं दुर्ग परिसर में ही निर्मित किया गया था। तोप 50 किमी तक की दूरी पर निशाना साध सकती थी। यहां लक्ष्मीविलास, ललितमंदिर, विलास मंदिर और आराम मंदिर आदि सभी राजपरिवार के लोगों के लिए अवकाश का समय बिताने के बेहतरीन स्थल थे। इसके साथ ही महत्वपूर्ण बैठकों के लिए एक असेंबली हॉल सुभ्रत निवास भी था। जयगढ़ किला जयपुर की सबसे ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। जयगढ़ दुर्ग का रास्ता भी आमेर घाटी से होते हुए नाहरगढ़ जाने वाले रास्ते पर है। इतिहास और शोध के विद्यार्थियों के लिए यह दुर्ग अहम है।

नाहरगढ़

nahargarhजयपुर का नाम लेते ही जेहन में अठारहवीं उन्नीसवीं सदी की कला, संस्कृति और शिल्प नाच उठते हैं। महल, बाजार, प्राचीरें, भवन सब के सब गुलाबी। परकोटा तो अपने आप में विशाल म्यूजियम ही है। और पग-पग पर बिखरी ऐतिहासिक खूबसूरती को चार चांद लगाता है नाहरगढ। जयपुर शहर के उत्तर-पश्चिम में फैली मध्यम ऊंचाई की पहाड़ी पर ललाट उठाए सिंह की तरह खड़ा पीतवर्णी दुर्ग नाहरगढ़ जयपुर शहर के हर कोने से दिखाई देता है। शहर के एसएमएस स्टेडियम में जब कोई अंतर्राष्ट्रीय मैच होता है तो वहां के कैमरे नाहरगढ़ को फोकस करते हैं और प्राय: कमेंटेटर कहते हैं-’यह जयपुर है, राजसी ठाठ-बाठ की अनोखी और खूबसूरत नगरी।’ गोया नाहरगढ़ जयपुर का प्रहरी भी रहा है और पहचान भी। नाहरगढ़ का निर्माण जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने 1734 में कराया था। एक मजबूत और लम्बी प्राचीर के साथ इसे जयगढ़ के साथ जोड़ा गया। साथ ही नाहरगढ़ तक पहुंचने के लिए मार्ग भी विकसित किया गया। इतिहास में समय-समय पर नाहरगढ़ ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई हैं। चाहे फिर वो अपनों की सुरक्षा का जिम्मा हो या गैरों की रक्षा की चिंता। देशभर में 1857 की क्रांति की लहर थी। लोगों का खून उबल रहा था। जगह-जगह गोरों और उनके परिवार पर हमले हो रहे थे। तात्कालीन महाराजा सवाई रामसिंह को अपनी रियासत में रह रहे यूरोपीय लोगों, ब्रिटिश रेजीडेंट्स और उनके परिवारों की सुरक्षा का खयाल था। उन्होंने इलाके के सभी गोरों और उनके परिवारवालों को सकुशल नाहरगढ़ भिजवा दिया और अपने अतिथि धर्म का पालन किया। संपूर्ण रूप से देखा जाए तो नाहरगढ़ का निर्माण एक साथ न होकर कई चरणों में हुआ। महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने इसकी नींव रखी, प्राचीर व रास्ता बनवाया, इसके बाद सवाई रामसिंह ने यहां 1868 में कई निर्माण कार्य  कराए। बाद में सवाई माधोसिंह ने 1883 से 1892 के बीच यहां लगभग साढ़े तीन लाख रूपय खर्च कर महत्वपूर्ण निर्माण कराए और नाहरगढ़ को वर्तमान रूप दिया।

जलमहल

jalmahalजलमहल पानी पर तैरते खूबसूरत शिकारे की तरह लगने वाला एक शानदार ऐतिहासिक स्थल है।  जयपुर शहर से लगभग 8 किमी उत्तर में आमेर रोड पर जलमहल स्थित है। मानसागर झील के बीच स्थित इस महल की खूबसूरती बेमिसाल है। इसका निर्माण आमेर में लगातार पानी की कमी के चलते कराया गया था। जलाशय के साथ साथ सौन्दर्य को बढावा देने के लिए पानी के बीच खूबसूरत महल बनाया गया। जयपुर के राजा महाराजा यहां अवकाश मनाने और गोपनीय मंत्रणाएं करने के लिए आते थे। वर्तमान में यह पर्यटन का प्रमुख केंद्र है।

जलमहल तक पहुंचने के लिए शहर से सिटी बसों की उपलब्ध है। इसके अलावा निजी वाहन या टैक्सी से भी यहां पहुंचा जा सकता है। जलमहल के अंदर पहुंचने के लिए नौकाओं की व्यवस्था है। जलमहल को आमतौर पर इसकी पाल से देखा जाता है। लेकिन महल तक नौकाओं के द्वारा पहुंचा भी जा सकता है। यहां दो मंजिला इमारत, खूबसूरत गलियारे, टैरेस गार्डन आदि देखने योग्य जगहें हैं।

सिटी पैलेस

City Palaceदेश विदेश के सैलानी, इतिहासकार और शोध विद्यार्थी जयपुर की परंपराओं, कलाओं, राजसी जीवन और इतिहास को जानने के लिए सिटी पैलेस का विजिट जरूर करते हैं। सिटी पैलेस का एक हिस्सा चंद्रमहल आज भी शाही परिवार का आवास स्थल है। सिटी  पैलेस के बारे में यह उक्ति सटीक है कि शहर के बीच सिटी पैलेस नहीं, सिटी पैलेस के चारों ओर शहर है। इस गूढ़ तथ्य का राज है जयपुर के वास्तु में। जयपुर की स्थापना पूरी तरह से वास्तु आधारित थी। जिस प्रकार सूर्य के चारों ओर ग्रह होते हैं। उसी तरह जयपुर का सूर्य चंद्रमहल यानि सिटी पैलेस है। नौ ग्रहों की तर्ज पर जयपुर को नौ खण्डों यानि ब्लॉक्स में बसाया गया। नाहरगढ़ से ये ब्लॉक साफ नजर आते हैं। इन नौ ब्लॉक्स में से दो में सिटी पैलेस बसाया गया और शेष सात में जयपुर शहर यानि परकोटा। सिटी पैलेस के सर्वतोभद्र यानि दीवान-ए-खास में रखे चांदी के दो बड़े घड़े गंगाजली के नाम से मशहूर हैं। कीमती धातु के इतने बड़े पात्रों की खासियत के कारण ही इन गंगाजलियों को गिनीज बुक में स्थान मिला है। कहते हैं महाराजा माधोसिंह खाने-पीने और पूजा पाठ में गंगाजल के अलावा सादा पानी कभी इस्तेमाल नहीं करते थे। 1902 में उनके मित्र एडवर्ड जब इंग्लैण्ड के राजा का पद संभालने वाले थे तो माधोसिंहजी को आने का न्योता दिया। जाना भी जरूरी था और नियम भी नहीं टूटना चाहिए था। आखिर चांदी के 14000 सिक्कों को पिघलाकर दो घड़े बनाए गए जिनमें गंगाजल को विशेष विमान से इंग्लैण्ड पहुंचाया गया। ऐसे ही सैंकड़ो ऐतिहासिक तथ्यों से भरा पड़ा है सिटी पैलेस जिसके बारे में जानकर आनंद भी आता है और हैरत भी होती है।

गोविंद देवजी मंदिर

Govind Devjiअनेक इतिहासकारों, जिज्ञासुओं और लोकजीवन के शोध विद्यार्थियों के लिए गोविंददेव जी का मंदिर भी ऐतिहासिक स्थल हो सकता है। जयपुर को छोटी काशी के नाम से भी जाना जाता है। इसके पीछे कारण है जयपुर वासियों की आस्था। यह निर्विवाद रूप से सत्य है कि जयपुर में सबसे ज्यादा लोकप्रिय और आस्था का केंद्र है गोविंद देव जी मंदिर। देश के प्रमुख वैष्णव मंदिरों में गोविंद देवजी का मंदिर एक है। जयपुर के आराध्य गोविंद देवजी भगवान कृष्ण का ही रूप है। शहर के राजमहल सिटी पैलेस के उत्तर में स्थित गोविंद देवजी मंदिर में प्रतिदिन हजारों की संख्या में भक्त आते हैं। गोविंद देवजी राजपरिवार के भी दीवान अर्थात मुखिया स्वरूप हैं। जयपुरवासियों के मन में गोविंद देवजी के प्रति अगाध श्रद्धा है। सैंकड़ों की संख्या में भक्त यहां दो समय हाजिरी भी देते हैं। जन्माष्टमी के अवसर पर यहां लाखों की संख्या में भक्त भगवान गोविंद के दर्शन करते हैं। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार 16 वीं सदी में बंगाली संत चैतन्य महाप्रभु भागवत पुराण में वर्णित स्थानों की खोज करते हुए वृंदावन पहुंचे और गोविंद देवजी की यह मूर्ति खोज निकाली। बाद में उनके शिष्यों ने भगवान की प्रतिमाओं की सेवा पूजा की। कालखण्ड के उसी दौर में जब तुर्क आक्रान्ताओं का आक्रमण हो रहा था और हिन्दू देवी देवताओं के मंदिर और मूर्तियां खंडित की जा रही थी तब चैतन्य के गौड़ीय संप्रदाय के शिष्यों ने मूर्तियों को बचाने के लिए वृंदावन से अन्यत्र छिपा दिया। और महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने गोविंद की प्रतिमा को अपने संरक्षण में लिया और जब जयपुर स्थापित हुआ तो चंद्रमहल के सामने सूरज महल परिसर में गोविंद की प्रतिमा को स्थापित कराया। कहा जाता है कि राजा के कक्ष से गोविंद की प्रतिमा ऐसी जगह स्थापित की गई जहां से राजा सीधे मूर्ति का दर्शन कर सकें।

जंतर मंतर

Jantar Mantarजंतर-मंतर के चारों ओर जयपुर के सबसे अधिक विजिट किए जाने वाले पर्यटन स्थल हैं। इनमें चंद्रमहल यानि सिटी पैलेस, ईसरलाट, गोविंददेवजी मंदिर, हवा महल आदि स्मारक शामिल हैं। विश्व धरोहर की सूची में शामिल किए जाने की घोषणा के बाद यहां स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन काफी बढ गया है। जंतर मंतर के उत्तर में सिटी पैलेस और गोविंददेवजी मंदिर हैं। पूर्व में हवा महल और पुरानी विधानसभा। पश्चिम में चांदनी चौक और दक्षिण में त्रिपोलिया बाजार है। जयपुर के शाही महल चंद्रमहल के दक्षिणी-पश्चिमी सिरे पर मध्यकाल की बनी वेधशाला को जंतर-मंतर के नाम से जाना जाता है। पौने तीन सौ साल से भी अधिक समय से यह इमारत जयपुर की शान में चार चांद लगाए हुए है। दुनियाभर में मशहूर इस अप्रतिम वेधाशाला का निर्माण जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह ने अपनी देखरेख में कराया था। सन 1734 में यह वेधशाला बनकर तैयार हुई। कई प्रतिभाओं के धनी महाराजा सवाई जयसिंह एक बहादुर योद्धा और मुगल सेनापति होने के साथ साथ खगोल विज्ञान में गहरी रूचि भी रखते थे। वे स्वयं एक कुशल खगोल वैज्ञानिक थे। जिसका प्रमाण है जंतर-मंतर में स्थित ’जय प्रकाश यंत्र’ जिनके आविष्कारक स्वयं महाराजा जयसिंह थे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने अपनी पुस्तक ’भारत एक खोज’ में इन वेधशालाओं का जिक्र करते हुए लिखा है कि महाराजा सवाई जयसिंह ने जयपुर में वेधशाला के निर्माण से पहले विश्व के कई देशों में अपने सांस्कृतिक दूत भेजकर वहां से खगोल विज्ञान के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों की पांडुलिपियां मंगाई। उन्हें पोथीखाने में संरक्षित कर अध्ययन के लिए उनका अनुवाद कराया। उल्लेखनीय है संपूर्ण जानकारी जुटाने के बाद ही महाराजा ने जयपुर सहित दिल्ली, मथुरा, उज्जैन और वाराणसी में वेधशालाएं बनवाई। लेकिन सभी वेधशालाओं में जयपुर की वेधशाला सबसे विशाल है और यहां के यंत्र और शिल्प भी बेजोड़ है। महाराजा सवाई जयसिंह द्वारा बनवाई गई इन पांच वेधशालाओं में से सिर्फ जयपुर और दिल्ली की वेधशालाएं ही अपना अस्तित्व बचाने में कामयाब रही हैं। शेष वेधशालाएं जीर्ण शीर्ण हो चुकी हैं।

अल्बर्ट हॉल

Albert Hall Museumजयपुर का अल्बर्ट हॉल म्यूजियम भी यहां की शानदार ऐतिहासिक इमारतों में से एक है।  जयपुर शहर के परकोटा से बाहर रामनिवास गार्डन के बीचों बीच स्थापित यह खूबसूरत इमारत अंग्रेजी मुगल और राजपूत स्थापत्य का बेजोड़ नमूना है। वर्तमान में यह म्यूजियम है और इसमें विभिन्न ऐतिहासिक वस्तुओं के साथ साथ इजिप्टियन ममी तूतू का संग्रह विशेष आकर्षण है। इसका निर्माण महाराजा सवाई रामसिंह व सवाई माधोसिंह ने कराया था। अल्बर्ट हॉल प्रिंस ऑफ वेल्स अल्बर्ट एडवर्ड को समर्पित इमारत है। इसकी डिजाईन अंग्रेज वास्तुविज्ञ जैकब ने तैयार की थी। इतिहास में रूचि रखने वाले शोध विद्यार्थी जयपुर और इसके इतिहास को करीब से जानने के लिए हॉल में स्थित म्यूजियम का अवलोकन जरूर करते हैं। सिर्फ जयपुर ही नहीं दुनियाभर के खास संग्रह यहां जुटाए गए हैं। यहां स्थित तीन प्रमुख हॉल, तीन झरोखों और बरामदों और गलियारों में दुनियाभर के खास संग्रहों की प्रदर्शनी की गई है।

गलता

Galtajiजयपुर शहर के पूर्व में अरावली की सुरम्य पहाडियों के बीच हिन्दू आस्था का प्रमुख केंद्र है गलताजी। जयपुर आगरा राजमार्ग पर सिसोदिया रानी के बाग से खानियां बालाजी होते हुए गलता धाम पहुंचा जा सकता है। इस रास्ते से जाने पर यह तीर्थ शहर से लगभग 15 किमी है। तीर्थ का मुख्य द्वार गलता गेट राष्ट्रीय राजमार्ग सं-8 पर स्थित है। यहां से गलता पहुंचने के लिए पहाड़ी पर पैदल मार्ग लगभग 1 किमी है। गलता गेट से चलने पर पहाड़ी रास्ते के बीच-बीच अनेक मंदिर हैं। गलता गेट से ही ये मंदिर रास्ते में आना शुरू हो जाते हैं। इनमें दक्षिणमुखी हनुमानजी, संतोषीमाता मंदिर, रामरामेश्वर मंदिर, कल्याणजी मंदिर, पंचमुखी हनुमान मंदिर, सिद्धि विनायक मंदिर, वीर हनुमान मंदिर और पापड़ा हनुमान मंदिर इनमें प्रमुख हैं। पहाड़ी की शिखा से एक रास्ता सूर्य मंदिर भी पहुंचता है जहां से जयपुर शहर का शानदार नजारा दिखाई देता है। यहां से पहाड़ी के पीछे ढलान में पैदल मार्ग ऋषि गालव मंदिर और पवित्र कुण्डों तक पहुंचता है। शहर के चांदपोल से सूरजपोल के मुख्य मार्ग से गलतातीर्थ का सूर्य मंदिर ऐसा दिखाई पड़ता है जैसे सूर्यदेव यहीं से अपनी यात्रा प्रारंभ करते हैं।

गलता तीर्थ ब्रह्मा के पौत्र और महिर्षी गलु के पुत्र ऋषि गालव की तपस्या स्थिली है। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि ऋषि गालव ने यहां साठ हजार वर्षों तक तपस्या की थी। ऐसी मान्यता है कि ऋषि गालव के गुरू विश्वामित्र थे। जब गालव की शिक्षा पूर्ण हुई तो गावल को दीक्षा दी गई। दीक्षा के बाद गुरू को गुरूदक्षिणा देने का समय आया। विश्वामित्र ने गालव से यह कहकर दक्षिणा लेने से मना कर दिया कि वे ब्राह्मण पुत्रों से दक्षिणा नहीं लेते। किंतु गालव भी गुरू को दक्षिणा देने के लिए तत्पर थे। बार बार मना करने पर भी जब गालव नहीं माने तो विश्वामित्र ने उनसे दक्षिणा में 800 श्यामकर्ण घोड़े मांगे। कहा जाता कि श्यामवर्ण घोड़े का सिर्फ दाहिना कान काला होता है शेष शरीर का संपूर्ण हिस्सा सफेद होता है। कहते हैं गुरू को दक्षिणा में श्यामकर्णी घोड़े देने के लिए गालव ने इसी स्थल पर साठ हजार वर्षों तक तपस्या की और गरूड़ को प्रसन्न किया। वरदान में उन्हें माधवी और तीन राजाओं से श्यामकर्णी घोड़ों की प्राप्ति हुई। एक और मान्यता इस तीर्थ से जुड़ी है। कहा जाता है यहां गौमुख से निरंतर बहने वाली धारा गंगा की है। इससे जुड़ी भी एक किंवदंति है। ऋषि गालव प्रतिदिन यहां से गंगा स्नान के लिए जाते थे। उनका तप और आस्था देखकर गंगा मां बहुत प्रसन्न हुई और गालव के आश्रम में स्वयं उपस्थित होकर बहने का आशीर्वाद दिया। कहते हैं तब से गंगा की धारा यहां अनवरत बहती है।

आभानेरी

Abhaneriकला और संस्कृति के क्षेत्र में भारत की भूमि का कोई मुकाबला नहीं। यहां पग-पग पर कला के रंग समय को भी यह इजाजत नहीं देते कि वे उसके अस्तित्व पर गर्त भी डाल सकें। भारत की ऐसी ही वैभवशाली और पर्याप्त समृद्ध स्थापत्य कला के नमूने कहीं कहीं इतिहास के झरोखे से झांकते मालूम होते हैं। ऐसे ही कुछ नमूने राजस्थान के दौसा जिले में स्थित ऐतिहासिक स्थल आभानेरी में देखने को मिलते हैं। जैसा कि नाम से प्रतीत होता है आभानेरी इतिहास की आभा से अभीभूत कर देने वाला स्थान है। जयपुर आगरा रोड पर सिकंदरा कस्बे से कुछ किमी उत्तर दिशा में यह छोटा सा गांव किसी समय राजा भोज की विशाल रियासत की राजधानी रहा था। राजा भोज को राजा चांद या राजा चंद्र के नाम से भी जाना जाता है। पुरातत्व विभाग को यहां से प्राप्त पुरावशेषों को देखकर यह कहा जा सकता है कि आभानेरी गांव तीन हजार साल पुराना तक हो सकता है। ऐसा माना जाता है कि यहां गुर्जर प्रतिहार राजा सम्राट मिहिर भोज ने शासन किया था। उन्हीं को राजा चांद के नाम से भी जाना जाता है। आभानेरी का वास्तविक नाम आभानगरी था। कालान्तर में अपभ्रंष के कारण यह आभानेरी कहलाने लगा।

चांद बावड़ी-

Chand Baoriराजस्थानी में बावड़ी का अर्थ होता है कृपा होना। राजस्थान जैसे प्राय: अकालग्रस्त रहने वाले राज्य में जल हमेशा से ही अमृत का पर्याय रहा है। वर्षा जल को संचित रखने के लिए यहां बावडियां बनाई जाती थी। इन बावडियों से अकाल के समय पानी इस्तेमाल करना एक विकल्प होता था। बावड़ी एक प्रकार का कदम-कूप होता है। ऐसा कुआ जिसमें सीढियों से उतरकर जाया जा सके। चांद बावड़ी के बारे में एक लोक-कहिन ये भी है कि अकाल के दौरान चरवाहे बड़ी संख्या में अपने पशुओं को लेकर यहां आते थे और सैंकड़ों की संख्या में पशु एक साथ बावड़ी में उतरकर प्यास बुझाया करते थे। चांद बावड़ी को अपने सीढिनुमा जाल के कारण स्टेपवेल भी कहा जाता है। आमतौर पर एक और धारणा है चांद बावड़ी के बारे में। यह बावड़ी प्राचीन हर्षत माता मंदिर के ठीक सामने स्थित है। इतिहासकारों का मत है कि बावड़ी विशाल मंदिर के प्रांगण में ही स्थित थी। मंदिर आने वाले श्रद्धालु यहां हाथ पांव प्रक्षालित करते थे।
विशाल जलाशय चांद बावड़ी राजस्थान की प्राचीनतम बावडियों में से एक है। 9 मीटर से भी गहरी इस बावड़ी का निर्माण निकुम्भ राजवंश के राजा चांद ने करवाया था। राजा चांद को चन्द्र के नाम से भी जाना जाता है जिन्होंने 8वीं-9वीं सदी में आभानेरी पर शासन किया था। आभानेरी को आभानगरी के नाम से भी जानी जाती थी। स्थापत्य कला प्रेमी राजा चांद ने यह विशाल बावड़ी और हर्षत माता का अदभुद मंदिर बनवाया था। इन भव्य धरोहरों को तुर्क आक्रान्ताओं ने जी भर कर भग्न किया। हर्षत माता का संपूर्ण मंदिर उन्हीं भग्न टुकड़ों का जोड़कर पुन: बनाया गया है। जबकि चांद बावड़ी अपने मौलिक रूप में आज भी बनी हुई है। अनगिनत सीढियों के जाल होने के कारण देखने में यह बावड़ी अदभुद है। सीढियों के दो तरफा गहरे सोपान होने के कारण इसे स्टेपवेल भी कहा जाता है। बावड़ी के चारों ओर दोहरे खुले बरामदों का परिसर है जबकि प्रवेश द्वार के दायें ओर छोटा गणेश मंदिर व बायें ओर स्मारक परिसर का कार्यालय कक्ष है। यह बावड़ी योजना में वर्गाकार है तथा इसका प्रवेशद्वार उत्तर की ओर है। नीचे उतरने के लिए इसमें तीन तरफ से दोहरे सोपान बनाए गए हैं। जबकि उत्तरी भाग में स्तंभों पर आधारित एक बहुमंजिली दीर्घा बनाई गई है। इस दीर्घा से प्रक्षेपित दो मंडपों में महिषासुरमर्दिनी और गणेश की सुंदर प्रतिमाएं प्रतिष्ठित हैं। बावड़ी का प्राकार, पाश्र्व बरामदे और प्रवेशमंडप मूल योजना में नहीं थे और इनका निर्माण बाद में किया गया। चांद बावड़ी के भीतर बनी तीन मंजिला तिबारियां, गलियारे और कक्ष भी अपनी बेमिसाल बनावट, पाषाण पर उकेरे गए शिल्पों और भवन निर्माण शैली से विजिटर्स को हैरत में डालते हैं। चांद बावड़ी के चारों ओर लोहे की लगभग तीन फीट की बाधक मेढ लगाई गई है। आमतौर पर इसे लांघने की इजाजत नहीं है और बावड़ी के बाहर से ही इसका नजारा लिया जा सकता है। लेकिन पुरातत्व विभाग, जयपुर से विशेष अनुमति से बावड़ी के निचले हिस्से में जाने और वीडियो शूट करने आज्ञा मिल सकती है। चांद बावड़ी ऊपर से विशाल और चौरस है। यहां से दो तरफा सोपान वाली कई सीढियां इसके तीन ओर बनी हुई हैं जो सीढियों का जाल सा प्रतीत होती हैं। ये सीढियां पानी की सतह तक जाती है। सोपान हर स्तर पर एक प्लेटफार्म तैयार करते हैं और नीचे की ओर जाने पर बावड़ी की चौडाई क्रमश: सिकुड़ती जाती है। पानी के कुछ ऊपर एक ऊंची बाधक मेढ लगाई गई है जिसे लांघने की मनाही है।

हर्षत माता का मंदिर-

Harshat Mata Templeहर्षत माता का मंदिर गुप्तकाल से मध्यकाल के बीच निर्मित अद्वितीय इमारतों में से एक मानी जाती है। दुनियाभर के संग्रहालयों में यहां से प्राप्त मूर्तियां आभानेरी का नाम रोशन कर रही हैं।
इस मंदिर के खंडहर भी दसवीं सदी की वास्तुशिल्प और मूर्तिकला की उत्कृष्टता को दर्शाते हैं।

लगभग तीन हजार साल पुराने माने जाने वाले इस गांव के लोग भी मंदिर की प्राचीनता को जानते समझते हैं और भरपूर संरक्षण करते हैं। स्थानीय लोग मंदिर में पूरी आस्था और श्रद्धा संजोये हुए हैं। यहां तीनदिवसीय वार्षिक मेले में इन स्मारकों के प्रति उनकी श्रद्धा और प्रेम देखते ही बनता है। वर्तमान में हर्षत माता मंदिर और चांद बावड़ी दोनो भारत सरकार के पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित स्मारक हैं।इस विशाल मंदिर का निर्माण चौहान वंशीय राजा चांद ने आठवीं नवीं सदी में करवाया था। राजा चांद तात्कालीन आभानेरी के शासक थे। उस समय आभानेरी आभानगरी के नाम से जानी जाती थी। महामेरू शैली का यह पूर्वाभिमुख मंदिर दोहरी जगती पर स्थित है। मंदिर गर्भगृह योजना में प्रदक्षिणापथयुक्त पंचरथ है जिसके अग्रभाग में स्तंभों पर आधारित मंडप है। गर्भगृह एवं मण्डप गुम्बदाकार छतयुक्त हैं जिसकी बाहरी दीवार पर भद्र ताखों में ब्राह्मणों, देवी देवताओं की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। ऊपरी जगती के चारों ओर ताखों में रखी सुंदर मूर्तियां जीवन के धार्मिक और लौकिक दृश्यों को दर्शाती हैं। यही इस मंदिर की मुख्य विशेषता है।

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  • जयपुर – विश्व हैरिटेज दिवस

    विश्व हैरिटेज दिवस के अवसर पर गुरूवार 18 अप्रैल को जयपुर के पुरा स्मारकों पर देशी विदेशी सैलानियों को न सिर्फ निशुल्क प्रवेश दिया गया, बल्कि उनका तिलग लगाकर स्वागत भी किया गया। इन स्मारकों पर अन्य दिनों की बजाय दोगुने पर्यटक पहुंचे। हवामहल की खूबसूरती को को गुरूवार को 1805 पर्यटकों ने निहारा जबकि बुधवार को यहां 504 सैलानी ही आए थे। आमेर महल में हैरिटेज फोटो प्रदर्शनी लगाई गई। जंतर मंतर में भी से भीड रही।

  • रोप वे को कलैक्टर की मंजूरी

    जयपुर में कनकघाटी-जयगढ़ रोपवे प्रोजेक्ट को कलेक्टर से एनओसी मिल गई है। अब जेडीए वन विभाग के समक्ष इस अनपत्ति प्रमाणपत्र के सहारे प्रोजेक्ट की फाइल रखेगा। पिछले कई साल से जेडीए का रोप वे प्रोजेक्ट अटका हुआ था। छह माह से कलेक्टर के पास अनुसूचित जाति और अन्य परंपरागत वन निवासी अधिनियम 2006 एवं नियम 2008 की पालना को लेकर फाइल अटकी हुई थी। रोप वे के तहत 200 मीटर ऊंचाई तक रोप वे ट्रॉली चलाई जाएगी।

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