Site icon

गंगा माता मंदिर

ganga-mata-templeआस्था की नगरी और छोटी काशी कहलाने वाले गुलाबी शहर की हर बात में कुछ बात है। यहां के महल, दुर्ग, प्राचीरें और मंदिर सिर्फ स्थापत्य का नायाब नमूना ही नहीं हैं। जयपुर का हर पत्थर एक कहानी कहता है। इतिहास की तह में जाएं तो जयपुर के बारे में ऐसी कहानियां सामने आती हैं जिनपर आज के युग में विश्वास करना कठिन है। जयपुर का शाही ठाठ सिर्फ दिखावटी भी नहीं था, और न ही यह शान शौकत यहां के राजा महाराजाओं की सनक थी। जयपुर शौक और शाही आदतों का शहर है। यहां श्रद्धा भी एक रिवाज के साथ निबाही गई है। कुछ ऐसा ही जयपुर के गोविंद देवजी मंदिर परिसर में स्थित गंगामाता मंदिर के बारे में कहा जा सकता है।

पता

गंगामाता मंदिर,
जयनिवास उद्यान,
गोविंद देवजी मंदिर परिसर
बड़ी चौपड़, जयपुर।

गंगा माता मंदिर : सोने के कलश में गंगा

गोविंद देवजी मंदिर के पीछे जयनिवास उद्यान में बना गंगामाता मंदिर कई मायनों में खास है। यहां का स्थापत्य, शिल्प, खूबसूरती और विशेषताएं ही दर्शनीय नहीं हैं। बल्कि खास है इस मंदिर के निर्माण के पीछे राजपरिवार के सदस्यों की भावनाएं। इन अमूल्य भावनाओं के साथ इस संगमरमर और लाल पत्थरों से बने मंदिर में कुछ बहुत मूल्यावान वस्तु भी है। वह है इस  मंदिर में गंगा माता की मूर्ति के पास रखा लगभग 11 किला स्वर्ण कलश। 10 किलो 812 ग्राम के इस सोने के कलश में गंगाजल को सुरक्षित रखा गया है। इतने मूल्यवान कलश के लिए यहां गनमैन भी नियुक्त किए गए हैं।

गंगा के भक्त थे माधोसिंह

जयपुर के महाराजा सवाई माधोसिंह गंगा के अनन्य भक्त थे। उनकी दिनचर्या में गंगाजल इस कदर समाया था कि नहाने, पीने और पूजा में वे गंगाजल का ही इस्तेमाल किया करते थे। महाराजा माधोसिंह के लिए निरंतर गंगाजल लाया जाता था। सवाई माधोसिंह अपनी रानियों के साथ गर्मी में गंगा किनारे विश्राम करने के लिए शाही रेल से जाया करते थे। हरिद्वार में हर की पौड़ी पर बहने वाली गंगा की बदली धारा को वापस लाने अंग्रेज सरकार पर दबाव बनाने के लिए पंडित मदनमोहन मालवीय के बुलावे पर वे हरिद्वार गए थे। 1910 में जब जयपुर शहर प्लेग की चपेट में आ गया तब भी महाराजा माधोसिंह प्रार्थना करने के लिए हरिद्वार गए थे। प्रिंस एडवर्ड जब ब्रिटेन की गद्दी पर बैठे पर तब महाराजा माधोसिंह को बुलाया गया। किंतु इंग्लैण्ड गंगाजल कैसे ले जाया जाता। न जाते तो मित्र को नाराज करते। आखिर हल निकाला गया। दस हजार से ज्यादा चांदी के सिक्कों को पिघलाकर 17 मण चांदी से दो विशाल कलशों का निर्माण कराया गया। इनमें गंगाजल इंग्लैण्ड ले जाया गया। और हां, यात्रा से पूर्व विमान को भी गंगाजल से धोया गया। ये विशाल कलश आज भी सिटी पैलेस के सर्वतोभद्र में देखे जा सकते हैं। गंगा माता के लिए अनंत आस्था के चलते उन्होंने वर्ष 1914 में गोविंद देवजी मंदिर परिसर में गंगामाता का भव्य मंदिर बनवाया। इसी मंदिर में लगभग 11 किलो के स्वर्ण कलश में गंगाजल भरवाकर यहां रखवाया। उस समय इस मंदिर के निर्माण पर लगभग 36 हजार रुपए खर्च हुए थे।

मूर्ति के लिए बनाया मंदिर

महाराजा सवाई माधोसिंह की पटरानी जादूनजी के पास जनानी ड्योढी महल में गंगामाता की एक मूर्ति थी। पटरानी की सेविकाएं गंगा माता की सेवा पूजा किया करती थी। रानी की इच्छा थी कि इस मूर्ति की पूजा निरंतर होती रहे। इसी कारण इस मंदिर के निर्माण का विचार महाराजा माधोसिंह को आया। उन्होंने मकराना से संगमरमर और करौली से लाल पत्थर मंगाकर मंदिर का निर्माण कराया।

भांग के लिए पत्थर चोरी

मंदिर से जुड़ी एक और अनोखी घटना का वर्णन मिलता है। मंदिर के निर्माण के लिए मकराना और करौली से घड़ाई के कलात्मक पत्थर मंगाए गए थे। लेकिन धीरे धीरे निर्माण स्थल से ये पत्थर चोरी होने लगे। मंदिर के पत्थर चोरी की अनोखी घटना ने सभी को अचरज में डाल दिया। साथ ही सत्य की तह तक पहुंचना भी जरूरी था। महाराजा ने गुप्तचरों को इस राज की ग्रन्थी सुलझाने को कहा। पता चला कि स्थानीय लोग चोरी चुपके यहां से एक एक पत्थर सरका रहे थे। ये सभी लोग वो थे जिन्हें भांग घोटने की आदत थी। सभी के बारे में महाराजा को जानकारी लगी तो कुछ को तलब किया गया। भांग घोटने वालों ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए कहा कि इस पत्थर पर भांग बहुत ही अच्छी घुटती है, इसलिए पत्थर चोरी करना पड़ा। महाराजा सवाई माधोसिंह ने सभी पत्थर चोरों को क्षमादान दिया।

दुर्लभ चित्र और शिलालेख

मंदिर में इस दुर्लभ और बेशकीमती स्वर्ण कलश के अलावा राधा कृष्ण और हरिद्वार की हर की पौड़ी के दुर्लभ और सुंदर चित्र सजे हैं। यहां कवि पंडित रामप्रसाद द्वारा गंगा की महिमा के लिए रचा गया शिलालेख आज भी ज्यों का त्यों है। मंदिर के भित्तिचित्र, शिल्प और स्थापत्य देखने योग्य है।


Exit mobile version