रणथम्भौर दुर्ग : सवाई माधोपुर (Ranthambhor Fort Sawai Madhopur)
राजस्थान का पहाड़ी दुर्गों का राज्य कहा जाता है। राजपूतों की आन बान और शान का प्रतीक यह राज्य अपनी कला संस्कृति और विरासत संरक्षण में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यही कारण है दुनियाभर के पर्यटनप्रेमी बड़ी संख्या में राजस्थान आते हैं और यहां के दुर्गों का भ्रमण करते हैं। रणथम्भौर का दुर्ग विश्व के सबसे अच्छे जंगली पहाड़ी दुर्गों में से एक है। हाल ही यूनेस्को द्वारा राजस्थान के छह दुर्गों को विश्व विरासत सूची में शामिल किया गया है। जिनमें रणथम्भौर भी शामिल है।
रणथम्भौर दुर्ग का इतिहास
रणथम्भौर का दुर्ग भारत के सबसे मजबूत दुर्गों में से एक है। जिसने शाकम्भरी के चाहमान साम्राज्य को शक्ति प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। यह माना जाता है कि इस दुर्ग का निर्माण महाराजा जयंत ने पांचवीं सदी में कराया था। बारहवीं सदी में यहां पृथ्वीराज चौहान के आने तक इस दुर्ग पर यादव शासकों का कब्जा रहा। 1282 से 1301 तक यहां हम्मीरदेव का शासन रहा।हम्मीरदेव रणथम्भौर के सबसे शक्तिशाली राजा साबित हुए। उन्होंने अपने राज में कला और साहित्य को प्रश्रय दिया। 1301 में दुर्ग पर दिल्ली मुगल सम्राट अलाउद्दीन खिलजी ने आक्रमण कर दिया। हम्मीर ने बहुत बहादुरी से खिलजी का सामना किया लेकिन वे दुर्ग नहीं बचा पाए। इसके बाद दुर्ग मुगल सुल्तानों के कब्जे में रहा। मुगलों के कब्जे से राणा सांगा ने इस छीन लिया। उन्होंने 1509 से 1527 तक रणथम्भौर पर राज किया। इसके बाद एक बार फिर यह दुर्ग मुगलों के कब्जे में चला गया।
रणथम्भौर की खूबसूरती
यह दुर्ग रणथम्भौर नेशनल सेंचुरी बाघ परियोजना के किनारे स्थित है। चारों ओर से विशाल रक्षा प्राचीरों से घिरे इस दुर्ग में सात विशाल दरवाजे हैं। ये दरवाजे हैं-नवलखा पोल, हथिया पोल, गणेश पोल, अंधेरी पोल, सतपोल, सूरज पोल और दिल्ली पोल। दुर्ग में कई स्मारक भी हैं। इनमें हम्मीर महल, बड़ी कचहरी, छोटी कचहरी, बादल महल, बत्तीस खंभों की छतरी, झंवरा-भंवरा अन्न भंडार आदि प्रमुख हैं।इसके अलावा यहां का गणेश मंदिर स्थानीय पर्यटकों और श्रद्धालुओं के बीच बहुत प्रसिद्ध है। इसके अलावा यहां स्थित दरगाह और जैन मंदिर भी दर्शनीय हैं। रणथम्भौर दुर्ग को झीलों और तालाबों का दुर्ग भी कहा जा सकता है। दुर्ग के आसपास और भीतर तीन प्रमुख झीलें हैं। ये झीलें पद्म तालाब, मलिक तालाब और राजाबाग झील हैं। दुर्ग की प्राचीरों से इन सुंदर झीलों का दर्शन किया जा सकता है।इसके अलावा इस विशाल क्षेत्र में फैले दुर्ग से अभ्यारण्य का नयनाभिराम दृश्य देखा जा सकता है। सेंचुरी के अंदर स्थित तालाब यहां से साफ देखा सकता है और अभ्यारण्य के जीवों को यहां क्रीड़ाएं करते, शिकार खेलते भी देखा जा सकता है। इस सर्वश्रेष्ठ वनदुर्ग के चारों ओर सघन जंगल इसे सबसे सुरक्षित किला करार देते हैं। लेकिन फिर भी इस दुर्ग का इतिहास कई संघर्षों से भरा पड़ा है।
किले का मुख्य द्वार उत्तर दिशा की ओर से है। लगभग साढे पांच किमी की परिधी दीवार के बीच बने इस दुर्ग में कई स्मारक बने हुए हैं। उत्तरी प्रवेशद्वार नौलखा पोल कहलाता है। नौलखापोल से पहले कुछ चट्टानों को काटकर सीढ़ीनुमा चढाई तैयार की गई है। मुख्य महल की रक्षा के लिए नौलखापोल के बाद तीन भव्य दरवाजे और बनाए गए। ये दरवाजे हाथी पोल, गणेशपोल और अंधेरी पोल हैं। इन दरवाजों से टेढ़ी मेढ़ी चढ़ाई चढ़ते हुए मुख्य परिसर में आया जाता है। यहां से आगे मंदिर, दरगाह, छतरियां, बाड़े और महल क्षेत्र के दर्शन होते हैं। महल के आसपास सैनिकों के लिए बनाए गए आवासीय परिसर आज भी खंडहर हालात में मौजूद हैं। महल की उत्तरी प्राचीर लगभग खड़ी दीवार की तरह है और यहां बने एक झरोखे से नीचे झांकने पर बहुत गहरी खाई दिखाई देती है। यह झरोखा किसी समय निगरानी के काम आता था। यहां से पश्चिमी, उत्तरी और पूर्वी सीमा को क्षितिज की दुरी तक देखा जा सकता है। दुर्ग की प्राचीरों को मोटी दीवार के रूप में सीधे और सपाट तरीके से ही बनाया गया है। क्योंकि चारों ओर खड़ी पहाड़ी होने के कारण यह दुर्ग सुरक्षित था इसलिए प्राचीरों को आग्नेयास्त्रों की आवयकता के अनुरूप डिजाइन नहीं किया गया है। दुर्ग का स्थापत्य पूरी तरह से हिन्दू शैली से बना हुआ है। हम्मीर महल और रानी महल अपनी खूबसूरती से बरबस ही आकर्षित करते हैं। यहां 13 वीं 14 वीं सदी की एक दरगाह और लगभग पांचवीं सदी का एक गणेश मंदिर भी स्थित है।
गणेश चतुर्थी के अवसर पर यहां विशाल मेला भरता है, इसके अलावा हर बुधवार को भी बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां दर्शन करने आते हैं। दुर्ग के सबसे आकर्षक हिस्से यहां अठारहवीं सदी की छतरियां हैं। इसी दुर्ग में बत्तीस खंभों वाली एतिहासिक छतरी भी है। छतरियों के बीच एक जगह बहुत बड़ा जलाशय भी बना हुआ है। संकट काल में यही जलाशय प्रजा को पेयजल उपलब्ध कराने के लिए काम आता था। पुराविशेषज्ञों का मानना है कि छतरियों वाला हिस्सा ऐतिहासिक उद्यानक्षेत्र रहा होगा, इसे पुनर्विकसित करने की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं।दुर्ग के विभिन्न हिस्सों में बने स्मारकों, धार्मिक स्थलों और छतरियों तक पहुंचने के लिए दुर्ग परिसर में ही पहाड़ियों के ऊबड़ खाबड़ रास्ते तय करने होते हैं। गणेश मंदिर के सामने ऊंचे पहाड़ी भाग को पार करने के बाद एक कमरानुमा बावड़ी व विशाल शिवलिंग छतरी मनमोहक है, यहां से चारों ओर वनप्रदेश और अरावली की ऊंची पहाड़ियां नजर आती हैं।
कैसे पहुंचें रणथम्भौर
रणथम्भौर पहुंचने के लिए कोटा और जयपुर सबसे नजदीकी हवाई अड्डे हैं। इसके अलावा जयपुर और कोटा से रणथम्भौर के लिए बेहतर रेल्वे सुविधा भी है। जयपुर से रेल से लगभग साढे तीन घंटे के सफर के बाद रणथम्भौर पहुंचा जा सकता है। मुख्य स्टेशन से ही रणथम्भौर जाने के लिए किराए पर टैक्सी उपलब्ध हो जाती हैं। यहां से रणथम्भौर दुर्ग 9-10 किमी की दूरी पर है। सवाई माधोपुर में ठहरने के लिए अच्छे होटल और लॉज उपलब्ध हैं।