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आकाशवाणी का वह पहला प्रसारण – यह राजस्थान है

आकाशवाणी का वह पहला प्रसारण-

राजस्थान की वीरता, बलिदान और खूबसूरती की किस्से तो असंख्य ग्रंथों में शोभायमान हैं लेकिन इन सबमें विशिष्ट है वर्ष 1956 में जयपुर में आकाशवाणी केंद्र की स्थापना के अवसर पर प्रसार भारती द्वारा प्रसारित किया गया वह उद् घोष जिसमें सिमटी थी राजस्थान के कण-कण की अद्वितीयता। यह लेख था तात्कालिक विख्यात साहित्यकार भगवतीशरण उपाध्याय द्वारा लिखित-यह राजस्थान है। यह लेख सिर्फ पठनीय नहीं, बल्कि अपनी आत्मा में संकलित कर लेने योग्य भी है क्योंकि इसमें राजस्थान की महिमा का गुणगान है तो है ही साथ ही है जयपुर की वे जड़ें जिन्होंने आज के गुलाबी नगर को हरी-भरी शाखें दी हैं। पेश है वह ऐतिहासिक लेख-यह राजस्थान है।

यह राजस्थान है…

(भगवतीशरण उपाध्याय)

’यह राजस्थान है, सूरमा देश। नाम लेते ही इतिहास आंखों पर चढ़ आता है। अफ्रीका के रेगिस्तान सहारा का विस्तार, जितनी ही बीहड़ भूमि, उतने ही बीहड़ आदमी। आदमी कि फौलाद, पिघलता तो पानी, जमा तो बज्र।
एक लाख तीस हजार वर्ग मील, तपती रेत, नाचती मरीचिका, चप्पा-चप्पा पानीपत, कण-कण रक्त से सना, ज़र्रा-ज़र्रा जौहर, मालवा की ढाल-सा हरा भरा मेवाड़, अरावली का गौरव, दिलेरी की आन, दक्षिण की ओर गुजरात के द्वार अजमेर-आबू तक। उधर सिन्ध की हिन्दी सीमा जोधपुर जहां पानी की प्यास लग जाए, जैसलमेर, बीकानेर कि पाले को काठ मार जाए, जयपुर, कोटा, बूंदी, अलवर, भरतपुर कि जिन्होंने खड्ग से कीरत लिखी। छरहरा डील-डौल, नुकीली नाक, ऊंचा माथा। जिस्म से चिपकी कच्छानुमा धोती, सटी मिरजई, कसी पगड़ी। कमर से लटकती तलवार, मुट्ठी में कसा भाला। दोनों ओर संवारी दाढ़ी, चढ़ी मूछें, ताम्बे का रंग… बांका राजपूत कि देखो तो केहरी दुम दबा ले, कि चले तो गजराज राह छोड़ दे। छरहरी काया, सुथरा रंग, सांचे में ढले अंग। छाती पर कसी चोली, कमर से फैला घाघरा। माथे पर प्रकाश-पुंज बोरला, सिर पर आंचल, झुके तो आंचल भीग जाए। छेड़ो तो सिंगी गरज उठे। उमा-सी पावन, केसरिया राजपूती आन की रहस्य…. राजपूतनी।
यह चित्तौड़ है, विन्ध्याचल की भुजा पारियात्र की शक्ति का प्रतीक, अरावली के माथे पर गौरव का टीका। चिपटे मैदान में सहसा चमक उठने वाला यह चित्तौड़गढ़ गुहिलोतों के यश की पताका….. सदियों सूना रहा है। तब से, जब से प्रताप ने उसे तजा, जब से मेवाड़ के गाडि़या राणा के प्रण का गौरव रखने के लिए आज चार सौ सालों से अधिक नगर, मकान छोड़ गाडि़या राणा के प्रण का गौरव रखने के लिए़ गाडि़यों में ही फिरते रहे हैं, और राणा के कौल के राखनहार आजादी के वे बन्दे आजादी के बाद ही अब गढ़ में लौटे हैं। गढ़ फिर से आबाद हुआ है।
तीन बार गढ़ बर्बाद हुआ, तीन बार आजादी की कीमत दिलेरी मेवाडि़यों ने अपने खून से चुकाई, तीन बात चिता पर चढ़ कर नारी ने अस्मत के भाले पर जौहर का तिलक किया। गढ़ की चट्टान… बलि की बेदी बन गई। अनेक जयमल, अनेक फत्ता, आजादी के अनेकानेक दीवाने, जिनका नाम इतिहास तक नहीं जानता, उन मुट्ठी भर सूखी चट्टानों के लिए कुर्बान हो गए। इन्हीं चट्टानों से उठा था रणबांकुरा सांगा, जिसके घायल शौर्य की कथा बियाने की राहें कहती हैं, सीकरी की हवाएं, फरगना की तलवारें, बाबर की तोपची, उस्तान अली की रूमी तोपें आज चुप हैं पर एक हाथ, एक आंख, अस्सी घाव वाले उस मेवाड़ी सूरमा की आवाज आज भी उस बियाबां के खण्डहरों में बुलन्द है।
और आज भी चित्तौड़गढ़ में खड़ा है राणा कुम्भा का वह बे-नजीर कीर्ति स्तम्भ जो मालवा और गुजरात की सम्मिलित सेनाओं पर विजय की यादगार है और जिसकी ऊंचाई को लांघ जाने वाली अगर कोई चीज है तो वहीं हवा में बसी रानी पद्यमनी की रज। उस सती के सुहाग के सिन्दूर से अग्नि की लपटें लाल हो गई थी।
गढ़ के पास ही नगर है, माध्यमिका, जिसकी राह पश्चिम की विजयिनी सेनाएं प्राचीन काल में तब तक पूर्व में जाती रही जब तक गुहिल ने, बप्पा रावल ने चित्तौड़ खड़ा कर उस पश्चिमी दीवार की अर्गला ने मींच दी।
और थोड़ी ही दूर पर वह नाथद्वारा है जहां अनेक सन्तों की वाणी सुरक्षित है, जहां बल्लभ के उल्लास ने सूखे दर्शन को आनंद का योग दिया था, जहां मीरां की कांपती रोमांचक आवाज उठकर चारों दिशाओं में भर गई थी। और उससे भी पवित्र पास की वह दुर्गम घाटी है – हल्दीघाटी, जहां मुट्ठीभर कुलीन राजपूतों ने, मुट्ठी भर उपेक्षित अकिंचन भील तीरन्दाजों ने आजादी की नोक से साम्राज्य का छत्र छेद दिया था, जहां गुमराह भाई ने भाई से भेंट कर स्वामीभक्त चेतक की समाधि को आंसुओं से गीला कर दिया था।
पीछे पहाड़ी परकोटे में बन्द घने जंगलों के बीच मेवाड़ की दूसरी राजधानी है उदयसिंह की बसायी, उदयपुर नगरी-पूर्व का वेनिस। नगर की नई लुनाई में पुराने गौरव की सांस बसी है। हरी पहाडि़यों की घाटी में द्वीपों भरी नीली झील के किनारे उदयपुर अभिराम खड़ा है। इन्हीं द्वीपों के जल की सतह से उठे संगमरमर के सफेद महलों पर सुबह का सूूरज सोना बिखेर देता है। तट की पर्वतमाला पर नगर के सामने महाराणा का महल है, पूरबी वैभव से भरा, दीवारों की पच्चीकारी में मयूराकृतियां धारे, फर्श के सुन्दर डिजाइनों से भरा-पूरा, छत की बगीचियों से हरा-भरा, वह मनोरमा राजप्रासाद।
द्वीप के महल जगमन्दिर ने कभी बाप के बागी शाहजादा खुर्रम शाहजहां को पनाह दी थी, जैसे पहले चितौड़ ने रूपमती के प्रियतम बाज बहादुर को दी थी, पीछे जैसे उदयपुर ने औरंगजेब के बेटे को दी। पास ही जगनिवास है, अपना बगीचियों का जाल फैलाए मकरन्दमयी मधु मालती लिए।
पर राजस्थान का कश्मीर तो उदयपुर से तीस मील दूर जयसमन्द है, भारत की सुन्दरतम झीलों में से एक। नदियों का बहाव रोक कर बनी है, हय मानव-श्रम और सुरूचि की अभिराम परिचायक है।
उधर दक्षिण की ओर अजमेर है, राजपूताने का मरकज, जिसे चौहान अजयराज ने बसाया था। वहीं चलकर विग्रहराज बीसलदेव ने कन्नौज के सामन्त तोमरों से वह दिल्ली छीन ली थी जिसे विलासी पृथ्वीराज ने स्नेह से सजाया, जो तब से भारत की राजधानी बनी है, तारागढ़ का किला अकबर ने बनवाया। पर उससे कहीं अधिक महत्व की वह झील है आनासागर, साढ़े आठ सौ साल पहले आना की बनवाई। वहां ‘ढाई दिन का झोपड़ा’ भी है जिसकी चट्टानों पर विग्रहराज का संस्कृत में लिखा ‘हरकेलि नाटक’ खुदा है। मुइनुद्दीन चिश्ती की प्रसिद्ध कब्र ‘दरगाह ख्वाजा साहब’ भी वहां है। इसी चिश्ती की दुआ का परिणाम था – जोधाबाई का जहांगीर। मुसलमानों के इस पवित्र तीर्थ अजमेर शरीफ से बस सात मील पर ही हिन्दुओं का प्रख्यात पुष्कर तीर्थ है।
अजमेर के पश्चिम-दक्षिण में आबू है, गुजरात-राजपूताने की सरहद पर साढ़े तीन हजार फुट ऊंचाई पर बसा जैनियों का तीर्थ। कभी वशिष्ठ ने यज्ञ द्वारा गुर्जरों, हूणों को शुद्ध कर परिहार, परमार आदि अग्नि-कुलीय राजपूतों को जन्म दिया था। सिरोही की सीमा में वही दिलवाड़ा में जैन मन्दिर है, संगरमर के अचरज, शिल्प के श्रृंगार। उनकी दीवारों पर, छतों में, खम्भों पर अद्भुद चित्र कटे हैं। आंखे छक जाती हैं, नजर थक जाती है, पर चित्रों की संख्या नहीं चुकती। डिजाइनों के जंगल हैं वे एक से एक भिन्न, एक से एक खुलकर।
पूरब में कोटा, बूंदी हैं, और अलवर, भरतपुर। कोटा, चम्बल के किनारे शहरपनाह के भीतर बसा है। कवि-कालिदास ने इस चर्मणावती नदी की बड़ी महिमा गाई है। झील के तट पर वह उम्मेद भवन है, पुराना राजमहल, नया उसके दूसरी ओर है। राजाओं की समाधियों की अनेक छतरियां मुगल-शिल्प के मनोहर नमूने हैं, कोटा से 28 मील दूर पश्चिम में बूंदी है, पहाडि़यों से घिरी। शहरपनाह के दरवाजे खासे खूबसूरत हैं। झील के किनारे का महल राजस्थान के महलों में अनोखा है। कोटा-बूंदी के राजपूतों ने कितनी ही बार लोहे से लोहा लिया था। बूंदी के छत्रसाल ने कभी शाहजहां की बेटी जहांनारा को मोह लिया था। सीकरी की दीवारों के साए में गहराती रात की तनहाई में दोनो के मर्म परस्पर छू गए थे, भरम गए थे उनके मन, ढह गई थी काया, पर न तो राजा शाहजादी को छू सकता था, न शाहजादी सल्तनत के कानून तोड़ सकती थी और छत्रसाल ने जहांनारा के प्यारे भाई दारा की रक्षा के लिए सामूगढ़ की लडाई में जूझ कर शाहजादी के प्यार का अहसान चुकाया।
भरतपुर का विस्तार भी पहाड़ी है। किले के नीचे भरा सरावेर है, समुन्नत प्रासाद। भरतपुर निकट ही आगरे से लगा हुआ है, डीग के पुराने महलों के समीप। भरतपुर के किले ने अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए थे और कभी उसके जाटों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया था। मथुरा की रक्षा के लिए उसके राजाओं ने बार-बार प्राणों का सौदा किया।
जयपुर अठारहवीं सदी का मनोरम नगर है, तीन ओर महलों, किलों की घनी पहाडि़यां हैं, एक ओर मैदान। परकोटे लौट-लौट कर नगर की परिक्रमा करते हैं। विशेष योजना से बना है यह नगर। मकान एक से हैं, शिल्प हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति का नमूना है। बीच का हवामहल बारजों के ऊपर बारजे उठाए आसमान चूमता हैं नगर के निर्माता जयसिंह ने देश की अनेक जगहों में मान मन्दिर नाम की काल-तिथि बताने वाली वेधशालाएं बनवाई। सात मील की दूरी पर ही पहाड़ों में बसा अम्बर (आमेर) का महल खड़ा है, सूना, पर मानसिंह जोधाबाई का जस उजागर करने वाला। 1600 ई. का जयगढ़ का किला, लगता है जैसे जंगल-पहाड़ के एकान्त में शिकार की ताक में अहेरी दम साधे खड़ा हो।
अनेकानेक अनमोल राजस्थानी चित्र जयपुर की कलम से लिखे गए, जो आज देश-विदेश में भारत का गौरव बढ़ा रहे हैं। नाद और वाणी की अजस्त्र बहती धाराओं को भी कलावन्तों ने राग-रागनियों के रूप में वर्ण और रेखा की सीमाओं में बांध दिया। कानों को आंखें मिली, आंखों को कान मिले।
जोधपुर का मजबूत परकोटे से घिरा शहर पहाड़ी पर बसा है। सात दरवाजों से होकर किले में जाना होता है। इन्ही दरवाजों को धरमात की लड़ाई से हार कर भागे, जसवन्तसिंह के सामने उसकी रानी ने बन्द करा दिया था। महल अनमोल रत्नों से भरा है, राजस्थानी चित्रों से, हरबे हथियारों से। पास ही कायलाना और बालसमन्द की आकर्षक झीलें हैं। स्वयं नगर के भीतर गुलाब सागर के जल में नए-पुराने महलों, मन्दिरों के कलश-कंगूरे झिलमिल कांपते हैं। जोधपुर पाकिस्तान की सिन्धी सीमा पर है।
नगर से पांच मील उत्तर की ओर मन्डोर है, प्राचीन मारवाड़ की राजधानी। गुर्जर प्रतिहारों ने वहीं से उठकर मालवा और कन्नौज जीता था और बंगाल, बिहार छोड़ प्राय: सारे उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया था। महमूद गजनी की चोट कन्नौज में उन्हें ही सहनी पड़ी थी। उस मन्डोर को 1381 ई. में राठौर राव चुण्ड ने जीतकर जोधपुर के राजकुल का आरम्भ किया था।
बीकानेर भी पाकिस्तान की सीमा पर है। पन्द्रहवीं सदी के आखिर में बसा, परकोटे की सुरक्षा में। याद है बीकानेर की यात्रा। अग्नि परीक्षा थी वह। ऐसी याद है कि न तो यात्रा भूली जा सकती है, न नगर। मई का महीना, दहकते दिन, सुलगती रातें, उड़ती रेत, कि रेल के भीतर बदन पर इंच-इंच बैठ जाए, हजार झाड़ें पर जैसे जिन्दा दरगोर-और रेल की लाइन जिसे मजूर रेत हटा कर नंगी करते रहे तब कहीं पहिए उस पर डगरें।
सुबह सरदार की विदुषी रानी का बुलावा आया। कुमार गाड़ी में ले गया। महल ऊंचा लाल ईंट के रंग का, मोटे परदों से घिरा, निस्संदेह परम्परा की असूयंपश्या नारी का अन्त:पुर। पर रानी जो देखी तो आंखे निहाल हो गई। ऊंची, छरहरी रानी, मानधनी राजपूतों के गौरव-सी ही, मीरा की झलक जैसे मूर्तिमती हुई। राजपूतनी का राष्ट्रीय लिबास। रानी उठी, आवभागत की, बैठी। फिर उठी, चाय के सामान से लदी मेज की ओर बढ़ी, वह खड़ी गतिमती शालीनता। वर्दी पहने अनेक परिचर दौड़ पड़े। रानी का शालीन हाथ उठा, परिचर जहां के तहां खड़े रह गए। अतिथि को प्लेट स्वयं रानी ने परोसी, औरों को परिचरों ने। फिर उसने विनय और विद्या की एकत्र परम्परा बांध दी। लगा, ऐसी ही कोई रही होगी जिसने हुमायूं को राखी भेजी थी।
आज भी याद है चित्तौड़ का वह गढ़, दिलवाड़ा का वह मन्दिर, अम्बर का वह दुर्ग और मेवाड़ी नारीत्व की किरण सी वह रानी।


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