गैटोर की छतरियां कछवाहा वंश के राजाओं का समाधिस्थल है तो महारानियों की छतरियां राजपरिवार की दिवंगत रानियों की स्मृतिगाह है। आमेर रोड पर रागगढ मोड़ के पास स्थित महारानियों के इस अंत्येष्टि स्थल का निजि स्वामित्व भी सिटी पैलेस प्रशासन के अंतर्गत है। होली के अवसर को छोड़कर शेष दिन यह स्थल सुबह से शाम तक पर्यटकों के लिए खुला होता है।
कछवाहा राजाओं की राजधानी जब आमेर थी तो महारानियों का अंत्येष्टि स्थल भी आमेर में ही था लेकिन नए शहर जयपुर के निर्माण के बाद राजपरिवार चंद्रमहल में आ गया और महारानियों का अंत्येष्टि स्थल भी आमेर से रामगढ मोड के पास स्थानांतरित कर दिया गया। यहां महारानी जादौन, जोधी रानी, महारानी चन्द्रावत, महारानी झाली और बुआ-भतीजी की स्मारिकाएं बनी हुई हैं।
महाराजा सवाई माधोसिंह द्वितीय की पत्नी महारानी जादौन की छतरी अपनी भव्यता और कलात्मकता से सभी को आकर्षित करती है। पांच गुम्बदों वाली इस विशाल छतरी के चारों कोनों में गुमटियां भी बनी हुई हैं। मुगल व राजपूत शैली से बनी इस छतरी के खंभों पर की गई बारीक शिल्पकारी देखने लायक है। खंभों और छतरी के चूबतरों पर बेल-बूटे और वाद्ययंत्र उकेरे गए हैं। ये वाद्ययंत्र महारानी की संगीतप्रियता के द्योतक हैं। इसके अलावा प्रवेश द्वार के दाहिनी ओर दो छोटी छतरियां बनी हुई हैं जिन्हें बुआ भतीजी की छतरी कहा जाता है।
इस विस्तृत भू-भाग पर जोधी रानी, झाली रानी और चन्दावत रानी की छतरियां भी अपने विशिष्ट शिल्प के कारण लाखों बार पर्यटकों के कैमरों में ’क्लिक’ हो चुकी हैं। इन्हीं छतरियां के बीच बनी कुछ अधूरी छतरियां भी हैं जिनके स्तंभ इतिहास की संजीदगी को अपनी नक्काशी में छुपाए हुए हैं।
यहां आकर आभास किया जा सकता है कि कभी रनिवासों की रौनक रही ये रानियां कितनी खामोशी और सुकून से इन छतरियों की पनाह में सो रही हैं। वक्त के हवामहल की खिड़कियां शायद यहीं खुलती हैं।
जयपुर विजिट के दौरान भावनाओं, संवेदनाओं और सादगी से इस स्थल का भ्रमण अपरिहार्य बन जाता है।
आशीष मिश्रा
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