जयपुर कौमी एकता का शहर है। यहां हर पर्व त्योंहार मेलजोल और भाईचारे की मिसाल बन जाता है। दीवाली हो या ईद, कावड़ हो ताजिया। शहरवासियों की मौजूदगी हर त्योंहार को खास बना देती है।
नवंबर के माह में दीवाली के बाद मोहर्रम के अवसर पर हजरत इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए जयपुर में ताजियों को जुलूस निकाला जाता है। जुलूस में सैंकड़ों ताजिए गली से निकलते हैं। ताजियों के साथ ढोल ताशों की मातमी धुनें दोपहर से शाम तक गूंजती है। जयपुर में बहुत खूबसूरत कई मंजिला ताजिए बनाने का रिवाज है। इन ताजियों को बड़ी चौपड होते हुए जुलूस के तौर पर कर्बला ले जाया जाता है, जहां ताजियों को दफ्न करने के बाद जुलूस पूर्ण होता है।
हजरत इमाम हुसैन ने कर्बला में काफिरों से जंग करते हुए शहीद हुए और दुनिया को हक के लिए जंग करने की सीख दे गए। उनके अनुयायी आज भी जुलूसों, ताजियों और ढोल-ताशों की मातमी धुनों के साथ खिराज-ए-अकीदत पेश करते हैं। जयपुर के कर्बला मैदान में इन खूबसूरत ताजियों को सुपुर्दे खाक किया जाता है। दोपहर से ही जयपुर की गली गली में इमामबाड़ों के बाहर ताजिए एकत्र होने लगते हैं। जिन्हें ढोल ताशों और मातमी धुनों के बीच ’या हुसैन’ के दुखपूर्ण नारों के साथ बड़ी चौपड लाया लाया जाता है। इस जुलूस को देखने के लिए सारा शहर उमड़ पड़ता है। अकीदतमंदों का सैलाब रामगंज, बड़ी चौपड, त्रिपोलिया, सांगानेरी गेट और हवामहल बाजार के इलाकों में बहता सा दिखाई देता है। शाम गहराने के बाद जुलूस रामगढ़ स्थित कर्बला की ओर बढ़ने लगता है। सारे ताजिए कर्बला में एकत्र होते हैं और वहां उन्हें दफ्न कर दिया जाता है।
पुराने मोहल्लों में सबसे खूबसूरत ताजिया बनाने की होड होती है, मोहल्ला पन्नीगरान, मछलीवालान, तवायफान, भट्टा बस्ती, खुमरान, सिलावटान, नाहरीका नाका, चीनी की बुर्ज के खुर्रे, चांदपोल, रामगंज बाजार, चांदपोल, एमडी रोड, नीलगरान, झोटवाड़ा, सांगानेर आदि से ताजिए जुलूस में शामिल होते हैं। अकीदतमंद इन ताजियों के नीचे से गुजरकर मन्नतें मांगते हैं। यह कुछ कुछ वैसा ही है जैसे हिन्दुओं में डोला एकादशी के दिन मंदिरों से डोलों मे भगवान निकलते हैं और श्रद्धालु डोलों के नीचे से निकलकर प्रार्थना करते है।
इन जुलूसों में शिया समुदाय की ओर से जंजीरी मातम भी मनाया जाता है। शिया समुदाय के लोग मजलिस के बाद कर्बला तक मातमी जुलूस निकालते हैं। ताजियों के जुलूस के पहले वाली रात कत्ल की रात कहलाती है और रात भर शहर के परकोटा इलाके में लोगों के हुजूम ढोल-ताशों की मातमी धुनों के साथ एकत्र होते हैं।
इस अवसर पर सर्वश्रेष्ठ ताजिए और ढोल-ताशा ग्रुप को पुरस्कृत भी किया जाता है। ताजिया और ढोल-ताशा वालों में इन पुरस्कारों में जगह पाने की होड होती है।
खास बात-
मोहर्रम पर कौमी एकता का दिखाई देना जयपुर की परंपरा रही है। जयपुर का इतिहास इसका गवाह है। जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह ने सोने-चांदी का ताजिया बनवाया था। आज भी यह ताजिया चंद्रमहल से निकलता है और कर्बला से लौट आता है। यह ताजिया बनाने के पीछे एक किंवदंति भी सुनाई देती है। कहा जाता है कि एक बार रामसिंह बीमार पड़े। तब उनके संगीत उस्ताद रज्जब अली खान ने महाराज को ताजिए की डोरी पहनने की सलाह दी। महाराजा ने डोरी पहनी और कुछ दिन में उनकी तबियत दुरुस्त हो गई। इससे प्रभावित होकर महाराजा ने सोने चांदी का ताजिया बनवाया। मोहर्रम के अवसर पर आज भी आतिश के दरवाजे पर यह ताजिया रखा जाता है। ताजियों के जुलूस में यह ताजिया सबसे आगे रहता है और कर्बला तक ले जाया जाता है।
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