भारतीय एफडीआई (FDI india)
भारत में एफडीआई ( FDI )को लेकर अच्छा-खासा घमासान मचा। एक ओर कांग्रेस सरकार ने भारत में बाजार दो तरह का है। थोक और खुदरा। थोक बाजार को बड़ी इंडस्ट्रीज का बाजार भी कह सकते हैं। भारत में कई देशी विदेशी कंपनियां थोक बाजार में अपनी धाक रखती हैं और भारत की खुली आर्थिक नीतियों के कारण विदेशी इंडस्ट्रीज को यहां बढ़ावा मिला। इसने भारत के विकास के रास्ते भी खोले। जहां तक खुदरा बाजार का मसला है, खुदरा बाजार छोटे उद्यमी होते हैं जो छोटा-मोटा व्यवसाय और दुकानें करते हैं, खास बात ये ग्राहक से सीधे जुड़े होते हैं, आपकी गली का किराने वाला खुदरा व्यापारी है। जबकि रिलांयस एक इंडस्ट्री, जिसकी सेवाएं आप ले रहे हैं लेकिन मालिक से सीधे रूबरू नहीं हैं।
एफडीआई का अर्थ है फोरन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट। यानि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश। किसी अन्य देश अपनी कंपनी के माध्यम से या उसी देश में कोई कंपनी खरीदकर पैसा निवेश करके उत्पादन या फिर व्यापार का संचालन कर सीधे जुड़ना एफडीआई है।
किसी देश में व्यापार के फलीभूत होने की ज्यादा गुंजाइश, सस्ती मजदूरी, उन देशों से दी जाने वाली विशेष छूट या फिर व्यवसाय के विशेषाधिकारों का लाभ उठाने के लिए फोरन डायरेक्ट इन्वेस्टमेंट किया जाता है।
क्या है एफडीआई (FDI) :
किसी ’ए’ देश की कंपनी का ’बी’ देश में किया गया निवेश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश होता है। ऐसे निवेश से निवेशक को ’बी’ देश की उस कंपनी के प्रबंधन में कुह हिस्सा हासिल हो जाता है जिसमें उसने पैसा लगाया है। किसी निवेश को एफडीआई का दर्जा दिलाने के लिए निवेशक के लिए कुछ शर्तें होती हैं, जैसे ’बी’ देश की उस कंपनी के कम से कम 10 फीसदी शेयर खरीदना या फिर कंपनी में मताधिकार हासिल करना आदि।
एफडीआई के तहत विदेशी निवेशक भारत में कंपनी शुरू कर यहां के बाजार में प्रवेश कर सकता है। इसके लिए वह किसी भी भारतीय कंपनी के साथ संयुक्त उद्यम बना सकता है या पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी आरंभ कर सकता है। अगर वह ऐसा नहीं करना चाहता तो, यहां इकाई का विदेशी कंपनी का दर्जा बरकरार रखते हुए भारत में संपर्क परियोजना शाखा कार्यालय खोल सकता है। प्राय: एफडीआई निवेशक का दीर्घ अवधि निवेश होता है और कंपनियां वित्त के अलावा दूसरी तरह का योगदान भी करती हैं। सार रूप में किसी विदेशी कंपनी द्वारा भारत में स्थित किसी कंपनी में अपनी शाखा, प्रतिनिधि कार्यालय या सहायक कंपनी द्वारा निवेश करने को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कहा जा सकता है।
भारत में एफडीआई पर वस्तुस्थिति:
7 दिसंबर 2012 का दिन एफडीआई पर यूपीए सरकार की जीत के लिए चर्चा में रहा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संसद के राज्यसभा सदन में भी एफडीआई के पक्ष में बहुमत हासिल करने में कामयब रहे। मतदान राज्यों को यह तय करने का अिधकार देने के संबंध में था कि वे अपने बड़े शहरों में मल्टीब्रांड रिटेलर्स जैसे वालमार्ट या टेस्को को एफडीआई के तहत लाना चाहे या ना लाना चाहें।
रीटेल पर एफडी आई के मुद्दे पर बहुजन समाज पार्टी प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी प्रमुख मुलायम सिंह ने भी वोटिंग का बहिष्कार कर सरकार का रास्ता साफ कर दिया। एफडीआई मुद्दे के विरोध में ये दोनो पार्टियां सड़क पर भी उतर आई थी। लेकिन वोटिंग में हिस्सा न लेकर एक तरह से इन्होंने सरकार का एफडीआई पर साथ ही दिया और सरकार वोटिंग में जीत गई। हालांकि एफडीआई के विरोध में 218 मत पड़े, जबकि एफडीआई के पक्ष में 257 मत पड़े।
भाजपा ने विशेष रूप से एफडीआई का विरोध किया था। भाजपा के साथ साथ वाम दल, बीजद, अन्नाद्रमुक और डीटीपी भी संसद में मत विभाजन वाले नियम के तहत चर्चा करने की मांग करते रहे। हुआ भी यही, संसद के दोनो सदनों में एफडीआई पर चर्चा के बाद वोटिंग हुई और जीत सरकार की हुई।
भाजपा ने लगातार नियम 184 के तहत इस मुद्दे पर चर्चा करने का दबाव सरकार पर बनाया। इस नियम के तहत अगर बहुमत से कोई मुद्दा खारिज भी हो जाता है तो सरकार नहीं गिरती।
प्रधानमंत्री ने एफडीआई पर गतिरोध तोड़ने के लिए विपक्ष को भोज पर भी आमंत्रित किया। लेकिन भाजपा और अन्य दलों ने नरम रुख नहीं अपनाया और नियम 184 के तहत चर्चा और संसद में वोटिंग पर अड़े रहे।
आखिर डीएमके सुप्रीमो करुणानििध ने बयान दिया कि एफडीआई मुद्दे पर भले ही मतभेद अब भी बने हों लेकिन केंद्र में सरकार गिरने के परिणामों के बारे में सोचकर डीएमके ने यूपीए को समर्थन दिया है। यह डीएमके का यू टर्न था। क्योंकि इससे पूर्व डीएमके ने भी एफडीआई पर सरकार का विरोध जाहिर किया था।
सरकार एफडीआई मुद्दे पर नियम 193 के तहत कार्रवाई चाहती थी। इसका मतलब है जनहित मुद्दे पर चर्चा तो हो लेकिन वोटिंग ना हो।
आखिर सरकार एफडीआई पर बहस और वोटिंग के लिए तैयार हो गई। इसके तहत लोकसभा में नियम 184 और राज्यसभा में नियम 168 के तहत चर्चा करना तय हुआ। 2014 के आम चुनाव से 17 महिने पहले यह वोटिंग एक तरह से अपना-अपना दम दिखाने का अवसर थी।
एफडीआई के मुद्दे पर भारतीय राजनीति में भारी उथल-पुथल मची। सरकार का अपना तर्क था और विपक्ष का अपना। प्रधानमंत्री ने इस मुद्दे पर अपनी बोल्डनेस दिखाते हुए कहा था कि ’बड़े
सुधारों का वक्त आ गया है, यदि हमें जाना भी पड़ा तो हम लड़ते हुए जाएंगे।’ बहरहाल एफडीआई के पक्ष और विपक्ष में कई तर्क रखे गए-
महंगाई
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पक्ष : सरकार का दावा था कि कम कीमत पर बेहतर सामान मिलेगा। तीन साल में एक करोड नौकरियां मिलेंगी।
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विपक्ष : छोटी दुकानें खत्म हो जाएंगी। अमेरिका और यूरोप में भी ऐसा हो चुका है। बाजार पर बड़े रिटेलर्स का कब्जा हो जाएगा और वे इसे मनमाने ढंग से चलाएंगे।
उद्योग
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पक्ष : विदेशी कंपनियों को कम से कम 30 फीसदी सामान भारतीय बाजार से ही लेना होगा। इससे औद्योगिक विकास दर सुधरेगी।
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विपक्ष : कंपनियां 70 फीसदी सामान अपने बाजारों से खरीदेंगी इससे घरेलू उद्योग कमजोर होंगे।
किसान
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पक्ष : सरकार का पक्ष है कि किसानों को बिचौलियों से मुक्ति मिलेगी। इससे उन्हें अपने सामान की सही कीमत मिल जाएगी।
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विपक्ष : विदेशी कंपनियां गुणवत्ता के मामले में किसानों को परेशान करेंगी। कई देशों में किसानों को एफडीआई के विपरीत परिणाम भुगतने पड़े हैं।
आधारभूत ढांचा
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पक्ष : विदेशी कंपनियां सप्लाई चेन सुधारेंगी। कोल्ड स्टोरेज बनेंगे तो खाद्य सामग्री खराब होने का सिलसिला थमेगा।
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विपक्ष : सप्लाई चेन का सुधारने का काम सरकार का है। यदि वह बुनियादी ढांचा ठीक कर दे तो किसानों को बिना एफडीआई के ही इसका फायदा मिल सकता है।
एफडीआई पर पक्ष और विपक्ष के नेताओं ने अपने-अपने विचार रखे हैं।