जयपुर Hindi

सिटी पैलेस- गुलाबीनगर की हृदयस्थली

citypalace

सिटी पैलेस अठारहवीं सदी की निर्माण कला का चरमोत्कर्ष है। शाही सोच और विघाधर जैसे वास्तुविज्ञ ने मिलकर एक नायाब शहर की रचना की और उस मोतियों के हार की तरह गढे गए शहर में बीच का हीरा-सिटी पैलेस। चंद्रमहल सिटी पैलेस का मुख्य महल है। नौ खण्डों में जयपुर शहर की बसावट हुई इनमें सात खण्ड आम आवाम के लिए और दो खण्ड राजप्रासाद के लिए रखे गए थे। इन दो खण्डों में बड़ी चौपड़ से छोटी चौपड़ और चांदी की टकसाल से चौगान स्टेडियम तक का इलाका राजप्रासाद से जुड़ा था। जिनका केंद्र चंद्रमहल था। आज भी चंद्रमहल में राजपरिवार के सदस्य निवास करते हैं। राजपूत, मुगल और यूरोपियन शिल्प का अनुपम नमूना और शाही निवास होने के कारण आज भी यह दुनियाभर के पर्यटकों को आकर्षित करता है। सिटी पैलेस के कुछ हिस्सों में विभिन्न संग्रहालय बनाए गए हैं जहां आम पर्यटक भ्रमण कर सकते हैं। राजपरिवार के निवास चंद्रमहल में आम प्रवेश वर्जित है।

जयपुर परकोटा के बीचों बीच सिटी पैलेस स्थित है। यह एक महल न होकर भव्य इमारतों, महलों, बगीचों का एक युग्म है। खास बात है कि आज भी सिटी पैलेस परिसर के चंद्रमहल में राजपरिवार का आवास-स्थल है। यही कारण है दुनियाभर के पर्यटक सिटी पैलेस के दर्शन कर अपने आपको शाही इतिहास का अंग महसूस करते हैं।

सिटी पैलेस में चंद्रमहल, मुबारक महल और सूरजमहल प्रमुख प्रासाद हैं। सिटी पैलेस के शाही गार्डन में स्थित सूरजमहल में वर्ततान में जयपुर के आराध्य गोविंददेवजी का विशाल मंदिर है। चंद्रमहल शाही परिवार का निवास स्थल है जबकि शेष भाग में विभिन्न म्यूजियम्स के माध्यम से राजपरिवार से जुड़े इतिहास को संग्रहीत कर प्रदर्शित किया गया है।

सिटी पैलेस परिसर में आम प्रवेश के लिए दो रास्ते उदयपोल और वीरेन्द्रपोल हैं, जबकि राजपरिवार के लिए त्रिपोलिया गेट आरक्षित है। जलेब चौक में उदयपोल और जंतरमंतर के नजदीक वीरेन्द्रपोल से टिकटघर से टिकट लेकर सिटी पैलेस में प्रवेश किया जा सकता है।

आमेर में सात सौ साल से भी ज्यादा राज करने के बाद कछवाहा शासकों ने प्रदेश की बढ़ती जनसंख्या और जलस्रोतों की कमी के कारण नया शहर बसाने की योजना बनाई थी। जयपुर देश का पहला ऐसा शहर था जो पूर्व योजना और नक्शे के अनुरूप तैयार किया गया। दिल्ली सल्तनत से हमेशा करीबी और ऊंचे औहदे होने के कारण कछवाहा राजपूतों के पास धन के अथाह भण्डार थे। जिसका वैभव जयपुर की बनावट और बसावट में साफ नजर आता है। इसी अतुल्य वैभव का सर्वोत्तम प्रतीक है-सिटी पैलेस।

सिटी पैलेस का निर्माण महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने 1729 से 1732 के मध्य कराया था। शाही वास्तुविज्ञ विघाधर भट्टाचार्य और अंग्रेज शिल्पविज्ञ सर सैमुअल स्विंटन जैकब ने उस समय बींसवी सदी का आधुनिक नगर रचा था, साथ ही बेहतरीन, खूबसूरत, सभी सुविधाओं और सुरक्षा से लैस शाही प्रासाद।

सिटी पैलेस की भवन शैली राजपूत, मुगल और यूरोपियन शैलियों का अतुल्य मिश्रण है। लाल और गुलाबी सेंडस्टोन से निर्मित इन इमारतों में पत्थर पर की गई बारीक कटाई और दीवारों पर की गई चित्रकारी मन मोह लेती है।

आईये अब जानने की कोशिश करते हैं कि आमेर में सदियां बिताने के बाद कछवाहा वंश के राजाओं को जयपुर और सिटी पैलेस की आवश्यकता क्यों हुई। दरअसल सल्तनते हिन्द अकबर से व्यवहार और अंग्रेजों से मित्रता के कारण आमेर हमेशा एक समृद्ध और सुरक्षित नगर रहा। वैभव बढ़ने के साथ साथ जयपुर की जनसंख्या भी बढ़ रही थी और उपलब्ध जलस्रोत नागरिकों की आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पा रहे थे। नगर विस्तार करना राजाओं का कर्तव्य भी था। कछवाहा शासकों के पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं थी। इसलिए महाराजा जयसिंह द्वितीय पूरी तरह नियोजित सुरक्षित, सुंदर और समृद्ध शहर बसाना चाहते थे। जयपुर शहर अठारहवीं सदी में बना पहला नियोजित शहर था-और इसका वैभव बेहतरीन। इस खूबसूरत नौ खण्डों में बने खूबसूरत नगर के केंद्र में दो खण्डों में बनाया गया विशाल राजप्रासाद। जिसमें सात मंजिला मुख्य महल चंद्रमहल, रानियों के महल, चौक, मेहमानों के लिए रिसेप्शन हॉल-मुबारक महल, बाग-बगीचे, 36 कारखाने, ताल, अस्तबल, चांदनी, प्रशासनिक चौक, सभा-भवन, मंदिर, थिएटर, गोदाम, विशाल प्रवेशद्वार सम्मिलित थे।

इतिहास को अपनी पुष्ट बाजुओं में लपेटे यह खूबसूरत राजप्रासाद सिटी पैलेस देशी विदेशी आगंतुकों की चहल-पहल से खुशगवार दिखाई देता है।

आईये, जयपुर के हृदय तक पहुंचते हैं-सिटी पैलेस

बड़ी चौपड़ से हवामहल रोड़ होते हुए बायें हाथ की ओर एक विशाल द्वार जिसे सिरहड्योढी दरवाजा कहते हैं, से हम जलेब चौक पहुंचते हैं। जलेब चौक चार वर्गों में बंटा बड़ा चौक है जहां आप अपना वाहन पार्क कर सकते हैं। सिरहड्योढी दरवाजे के ठीक सामने सिटी पैलेस में प्रवेश के लिए उदयपोल दरवाजा दिखाई देता है। हमने यहीं अपनी गाड़ी पार्क की और जलेब चौक के दक्षिणी द्वार से पहुंचे जंतर-मंतर के करीब और यहां स्थित वीरेन्द्र पोल गेट से सिटी पैलेस में प्रवेश का मानस बनाया। द्वार के ठीक दायीं ओर टिकिट विण्डो है जहां महल में प्रवेश के लिए निर्धारित शुल्क अदा करने के साथ महत्वपूर्ण जानकारियां ली जा सकती हैं। वीरेन्द्रपोल के बायें ओर गार्ड कक्ष है और दायें ओर फोटोग्राफी कक्ष। यहां से प्रवेश करने पर मेटल डिटेक्टर सुरक्षातंत्र से गुजरना होगा। अपना बैग आदि चैक कराने के लिए भी तैयार रहें।

उदयपोल से सुरक्षा तंत्र से निकलने के बाद हम पहुंचे एक खुले बड़े चौक में जिसके दायें ओर दिखाई देती है एक विशाल घड़ी जो दो मंजिला इमारत पर बने एक वर्गाकार टावर पर लगी है। टावर पर चारों दिषाओं में घडि़यां लगी हैं। चौक के ठीक बीच में लाल पत्थर से निर्मित खूबसूरत इमारत मुबारक महल ने हमारा स्वागत किया। बैठकनुमा दो मंजिला इमारत है-मुबारक महल। राजशाही के समय राजा से मुलाकात करने जो मेहमान आया करते थे उन्हें यहीं इस भवन में रूकवाया जाता था। कहा जा सकता है कि मुबारक महल उस समय का रिसेप्शन काउंटर था। इस खूबसूरत इमारत दूसरी मंजिल पर वर्तमान में सिटी पैलेस प्रशासन के अधिकारी बैठते हैं जबकि निचले तल में वस्त्रागार संग्रहालय है।

इस वैभवशाही संग्रहालय में जयपुर के राजाओं, रानियों, राजकुमारों और राजकुमारियों के वस्त्र संग्रहीत किए गए हैं। सभी मौसमों के लिए बुने गए विविध प्रकार के पैरहनों और फैशन के विविध स्तरों को देखकर आगंतुक हतप्रभ रह जाते हैं। महाराजा भवानीसिंह की पोशाक आतमसुख की लम्बाई चौड़ाई देखकर पर्यटक हैरत में पड़ जाते हैं। यहां जयपुर पोलो का शाही अतीत भी संग्रहीत वस्त्रों, स्मृतिचिन्हों और विशेष सामान में नजर आ जाता है। खासतौर से लोहे की वह जालीदार बॉल जिसमें पलास की लकड़ी  जलाई जाती थी और उसके चमकने से रात्रि में पोलो खेला जा सकता था। संग्रहालय पांच कक्षों तक विस्तारित है जिसके हर एक कक्ष में सजे वस्त्र चेहरे पर आनंद और हैरत के भाव जगाते हैं।

मुबारक महल के दक्षिण में शाही गोदाम हैं जिनमें महल का पुराना सामान, फर्नीचर, कालीन आदि रखे होते हैं। इसी गोदाम के साथ बने कक्षों में महल के सेवादार रहते हैं। चौक के दक्षिण-पश्चिम कोने में सिंहपोल है। यह दरवाजा चांदनी चौक में खुलता है। इस दरवाजे से आम आवाजाही नहीं होती। सिर्फ राजपरिवार के सदस्य इस द्वार का प्रयोग करते हैं। इसी द्वार के ठीक दक्षिण में चांदनी चौक त्रिपोलिया दरवाजा है जो त्रिपोलिया बाजार में खुलता है और राजपरिवार के आवागमन के लिए आरक्षित है।

मुबारक महल के पश्चिम में में महाराजा सवाई भवानीसिंह गैलेरी है जिसमें फ्रेंड्स ऑफ द म्यूजियम वर्कशॉप है। यहां शाही हस्तकलाकारों द्वारा तैयार किए गए क्राफ्ट और अन्य कलात्मक वस्तुओं का डेमोस्ट्रेशन और सेल होता है। इस म्यूजियम में प्रवेश शुल्क अलग है जिसकी स्लिप यहीं से मिल जाती है।

इसी चौक के उत्तरी-पश्चिमी कोने में एक बरामदे में जयपुर की प्रसिद्ध कलात्मक कठपुतलियों का खेल दिखाने वाले कलाकारों ने गायन के साथ कठपुतलियां नचाकर हमें उत्साहित किया।

यहां इसी बरामदे के पास से कुछ सीढियां भवन की दूसरी मंजिल पर ले जाता है जहां गलियारे के साथ लगे कक्षों में है सिलह-खाना।

सिलहखाना का अर्थ है ऐसा स्थान जहां अस्त्र-शस्त्र रखे जाते हैं। शस्त्रों का ऐसा वैविध्यपूर्ण दुर्लभ संग्रहण देखकर आंखें फटी की फटी रह गई। यहां 15 वीं सदी के सैंकड़ों तरह के छोटे बड़े, आधुनिक प्राचीन शस्त्रों को बहुत सलीके से संजोया गया है। संग्रहण की कलात्मकता देखते ही बनती है। सबसे आकर्षक है इंग्लैण्ड की महारानी विक्टोरिया द्वारा महाराजा रामसिंह को भेंट की गई तलवार, जिसपर रूबी और एमरल्ड का काम सुखद हैरत में डाल देता है। जो धारधार शमशीरें दुश्मनों के लहू से अपनी प्यास बुझाती थीं वे इस संग्रहालय में करीने से सजकर मौन काव्य गुनगुनाती सी लगती हैं। हथियारों का म्यूजियम होने से पहले राजकाल में यह महारानियों के महल हुआ करते थे।सीढियों से लौटते हुए राजपरिवार के सदस्यों की दुर्लभ प्राचीन और विशाल तस्वीरों पर आंखें जमी रह जाती हैं।

यहां से हमने सर्वतोभद्र जाने के लिए विशाल पोल में प्रवेश किया। भव्य पोल। यह मुबारक महल चौक और सर्वतोभद्र चौक का पृथक करता है। पोल के दोनो ओर संगमरमर के हाथी। बिल्कुल जीवंत। जिनपर कारीगरी लाजवाब। पोल के पत्थरों, खंभों और दीवारों पर की गई पेंटिंग को देखकर कुछ देर के लिए हम आगे बढ़ना भूल गए।

पोल से बढ़कर दूसरे चौक में पहुंचे जहां बीच में सर्वतोभद्र सभागार दिखाई दिया। सर्वतोभद्र यानि प्राईवेट ऑडियंस हॉल को दीवान-ए-खास के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि महाराजा खास लोगों के साथ यहीं बैठकर विमर्श किया करते थे। सभागार के चारों ओर कोनों छोटी कोठरियां हैं, जिनमें से एक में म्यूजियम शॉप पर जयपुर के बारे में कुछ किताबें, शिल्प, हाथ की कारीगरी से युक्त वस्तुएं, सीडी-डीवीडी आदि मिल जाती हैं। संगमरमर के खूबसूरत खंभों पर टिकी चित्रकारी युक्त छतें और दीवारें मन मोह लेती हैं।

सर्वतोभद्र में रखे चांदी के दो बड़े घड़े कौतुहल का विषय हैं। जितना अनोखा इतिहास उतनी ही दैदिप्यमान आभा। महाराजा सवाई माधोसिंहजी द्वितीय इतने धर्म परायण थे कि गंगाजल ही पीते और उसी से ही स्नान-ध्यान, पूजा पाठ सब। सन 1901 में इंग्लैंड में उनके मित्र एडवर्ड सप्तम की ताजपोशी थी। जाना जरूरी था। लेकिन गंगाजल से किए जाने वाले नियम कैसे तोड़ते।

हल निकाला गया। 140000 चांदी के सिक्के पिघलाए गए और 350 किलो के दो घड़े बनवाए। उनमें गंगाजल भरकर इंग्लैण्ड ले जाया गया जहां माधोसिंहजी ने अपने सारे नियम बरकरार रखे। इनमें गंगाजल ले जाया गया था इसीलिए इन्हें गंगाजली कहा जाता है। गिनीज बुक में कीमती धातु के विशाल पात्रों की श्रेणी में गंगाजलियों का विश्वरिकॉर्ड है। दीवाने खास परिसर में ही बिलियर्ड टेबल जितने बड़े बॉक्स में जयपुर का नक्शा मिट्टी लकड़ी और कंकरों से बनाया गया है। जयपुर शहर का इतना अद्भुद नक्शा भी अपने आप में सुखद आश्चर्य है। सर्वतोभद्र सभागार की दीवारों पर की गई चित्रकारी तो मन लुभाती ही है लेकिन अस्त्र-शस्त्रों को जिस कलात्मक अंदाज में सजाया गया है, उसे देखकर पर्यटक इनके सामने खड़े होकर फोटो खिंचाने में उत्साह दिखाते हैं। वर्तमान में इस सभागार में सिटी पैसेस के तहत आने वाले संस्थानों की ओर से कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं जिनमें बच्चों की चित्रकला व संगीत प्रतियोगिता महत्वपूर्ण हैं।

सर्वतोभद्र के ही पूर्व में एक छोटा द्वार है जो सभानिवास यानि दीवान-ए-आम की ओर ले जाता है। यह पब्लिक ऑडियंस के लिए बनवाया गया भव्य हॉल है। गलियारे से जैसे ही हम सभागार में पहुंचते हैं तो यहां के वैभव को देखकर आंखें स्थिर हो जाती हैं। स्वर्ण में ढाली सी प्रतीत होती हैं दीवारें जिनपर की गई बारीक चित्रकारी मीनाकारी से कम नहीं लगती। छतों से लटकते जगमगाते झूमर हॉल में चार चांद लगाते हैं चारों और रखे शाही आसन ऐसा आभास देते हैं कि बस अभी राजा और मंत्रियों की बैठक होने को है। गलियारे से लेकर सभास्थल तक बिछे बेशकीमती कालीनों पैर रखकर चलने में भी मन संकुचित हो जाए, इतना ऐश्वर्य। इसी सभागार में जिस सिंहासन पर बैठकर महाराजा सुनवाई किया करते थे, वह था तख्त-ए-रावल। महाराजा जब नगर-परिक्रमा करते तो तख्त-ए-रावल को हाथी पर रखा जाता था और उसपर बैठकर ही महाराजा नगर-भ्रमण किया करते।

सर्वतोभद्र की ठीक पश्चिम में पैलेस प्रशासन का कार्यालय, प्रीतम निवास और चंद्रमहल का प्राईवेट गलियारा है। आमतौर पर पर्यटकों को प्रीतम निवास में जाने की अनुमति है। मुख्यद्वार से गए गलियारे में से होकर प्रीतमनिवास के चौक में पहुंचा जा सकता है। इसी गलियारे में प्रवेश करते ही दायें ओर शाही आईना अपनी बनावट से मन मोह लेता है। इसपर उकेरी गई डिजाईन अदभुद है। दो ड्रैगन्स के बीच मिरर दिखता है। ड्रैगन्स के दोनो ओर गोल उत्तल कांच की शानदार कारीगरी। आईने के शीर्ष पर बैठे हुए बुद्ध एवं अन्य प्रतिमाएं उकेरी हुई हैं। इसी गलियारे में राजपरिवार के पोलो प्रेम को बड़ी पेंटिंग्स में प्रदर्शित किया गया है। गलियारा मयूरद्वार से होकर प्रीतमनिवास चौक में पहुंचता है।

प्रीतम निवास चंद्रमहल के ठीक दक्षिण में स्थित अंत:पुर का छोटा चौक है। चौक में चार कोनों में बने चार द्वार अदभुद कलात्मकता और कारीगरी पेश करते हैं। इन्हें रिद्धि-सिद्धि पोल कहा जाता है। चारों की बनावट एक जैसी है लेकिन कलात्मकता एक से बढ़कर एक। छोटे दरवाजे के दोनो ओर गोखे। द्वार पर विराजित देव प्रतिमाएं और दूसरी मंजिल पर बने झरोखे मन मोह लेते हैं। ये चारों द्वार चार ऋतुओं को इंगित करते हैं वहीं चारों द्वार हिन्दू देवी-देवताओं को समर्पित हैं। चौक के उत्तर-पूर्व में मयूरद्वार सम्मोहन जगाता है। द्वार पर मयूराकृतियों, नाचते मोरों के भित्तिचित्र, स्कल्प शानदार। यह द्वार भगवान विष्णु को समर्पित है। दक्षिण पूर्व में कमलद्वार। कमल के फूल की तरह खिला खूबसूरत द्वार। चित्रकारी का आकर्षण यहां भी कम नहीं। यह द्वार शिव-पार्वती को समर्पित है। ग्रीष्म ऋतु को इंगित करने वाले इस द्वार पर बनी कलात्मकता शीतलता प्रदान करती है। इस द्वार के ठीक सामने चौक के दक्षिण पश्चिम में है गुलाब द्वार। कछवाहा राजपूतों की कुल देवी को समर्पित। यह द्वार सर्दी के मौसम को इंगित करता है। द्वार की दीवारों पर गुलाब के फूलों की शानदार चित्रकारी है। और अब लहरिया द्वार। जिसे ग्रीन गेट भी कहा जाता है। लहरिया प्रतीक है सावन का। हरा रंग हरियाली का प्रतीक और लहरिया डिजाईन जयपुर की संस्कृति का। प्रकृति और संस्कारों का अदभुद मिश्रण यहीं झलकता है। खूबसूरती में अव्वल। यह द्वार समर्पित है देवों के नायक गणेश को। चौक के उत्तर में आकाश का भाल चूमता दिखाई देता है सात मंजिला भव्य-चंद्रमहल।

आईये, कुछ जानकारी चंद्रमहल की भी लें। चंद्रमहल को चंद्रनिवास भी कहा जाता है। सात मंजिला इस खूबसूरत ईमारत में शाही परिवार आज भी निवास करता है। विशेषता यह कि सातों मंजिलों की विशेषताओं के अनुरूप ही उनके नाम। जैसे-सुखनिवास, रंग मंदिर, पीतम निवास, श्रीनिवास, मुकुट महल आदि। महल का आकार मुकुट की भांति है, निचली मंजिलों का विस्तार ज्यादा, ऊपर की मंजिलों का कम, शीर्ष बिल्कुल मुकुट की किलंगी की भांति शोभायमान। दीवारों का नीला रंग। सफेद और भूरे रंग की कारीगरी। स्तंभों पर फूलों और बेलबूटों की जीवंत बनावट और भित्तिचित्र लाजवाब। विशेष मेहमानों के लिए यहां आधार तल उपलब्ध है। शेष हिस्सा राजपरिवार का निवास-स्थल। राजशाही के समय प्रीतम निवास के मयूरद्वार से महल में प्रवेश होता था। महल के ठीक उत्तर में विशाल गार्डन, वृक्ष-लताएं, फुलवारियां, पानी के फैव्वारे, छतरियां-मेहराब, ताल शोभायमान होते हैं। आज जहां गोविंददेवजी का मंदिर है वह महल परिसर के गार्डन का ही हिस्सा था जहां खुले में सूरज महल था। महाराजा यहां बैठकर आगंतुकों से वार्तालाप और मंत्रणाएं किया करते थे। बाद यह स्थल गोविंद के नाम कर दिया गया और भव्य मंदिर का निर्माण किया गया।

प्रीतम निवास से वापस लौटकर आते हैं दीवाने खास चौक में। इसी के उत्तर-पश्चिमी कोने पर एक द्वार के दोनो ओर रखी तोपें आगाह करती हैं आमजन को। सावधान, यह राजपरिवार का आवास-स्थल है। अनेक पर्यटक द्वार में बनी छोटी खिड़की से भीतर झांकने का प्रयास करते हैं। कईयों को तो विश्वास ही नहीं होता। क्या आज भी जयपुर के राजाओं का परिवार यहां रहता है। अपने आप को इतिहास के इतना करीब खड़ा पाकर कृत्य हो जाते हैं। सर्वतोभद्र के ठीक उत्तर में कैफे पैलेस है। महल परिसर में बैठकर चाय-कॉफी और नश्ते का रूआब ही अलग है। शाही ठाठ। सफेद शेरवानियों और लाल साफों से सजे-धजे सेवादार जब जी-हुजूरी करते हैं तो मन में राजाशाही रौब पैदा हो जाता है।

सर्वतोभद्र के उत्तर-पूर्व में बग्गीखाना है। यह एक खुला चौक है जिसमें शाही सवारियों और तोपों को प्रदर्शित किया गया है। यहीं इस चौक में कुछ दुकानों पर जयपुरी पोशाक, रजाईयां, चादरें और कई कलात्मक वस्तुएं खरीदी जा सकती हैं। चौक के खुले परिसर में शाही तोपों को रखा गया है जबकि बरामदों में बनी खुली तिबारियों में शाही बग्गियां और त्योंहारों पर निकलने वाले रथ और डोलियां महाडोल और पालकियां रखी गई हैं। छोटी बड़ी और काल की कलाओं की ओर इशारा करती बग्गियों में 1876 में इंग्लैण्ड के प्रिंस एडवर्ड द्वारा जयपुर नरेश को भेंट की गई विक्टोरिया बग्गी लोगों के आकर्षण का प्रमुख केंद्र होती है।

बग्गीखाने से एक रास्ता उदयपोल से आपको जलेब चौक ले जाता है। जहां आप अपने वाहन से जयपुर दर्शन के लिए अपना नया पथ चुन सकते है। किंतु सिटी पैलेस से निकलने के बाद यकीनन यहां भ्रमण का अनुभव और आनंद सदा के लिए आपकी स्मृतियों में आबाद हो जाएगा।

आशीष मिश्रा
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