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रंगो का त्यौंहार – होली ( Holi )

Holi

होली भारत के प्रमुख त्योंहारों में से एक है। रंग उमंग और मस्ती के इस हिन्दू त्योंहार को सभी धर्मों के लोग मनाने लगे हैं। यहां तक कि विदेशों में भी होली की तर्ज पर एक दूसरे को रंग लगाकर त्योंहार मनाए जाने लगे हैं। फ्रांस का टमैटिनो उत्सव इसका एक उदाहरण है। हिन्दू पंचां ग के अनुसार होली फागुन महिने की शुक्ल चतुदर्शी और पूर्णिमा को मनाया जाता है। इस दो दिवसीय त्योंहार में चतुर्दशी के दिन होलिका दहन होता है और दूसरे दिन रंगों की होली खेली जाती है, जिसे आम तौर पर ’धुलंडी’ के नाम से जाना जाता है।

होली  ( Holi) के दिन हिन्दू घरों में हर्षोल्लास का माहौल होता है। घरों की महिलाएं गोबर से चांद-सितारे और चक्र बनाती हैं। इन्हें बड़कुले कहा जाता है। इन बड़कुलों को एक रस्सी में पिरोकर मालाए बनाई जाती हैं। शाम को हर मोहल्ले की अपनी होली तैयार की जाती है। होली के लिए किसी सार्वजनिक स्थान पर छड़ियां और गोबर एकत्र किया जाता है और उसकी एक ढेरी बनाकर रख दी जाती है। महिलाएं होलिका दहन से पूर्व इस ढेरी की पूजा अर्चना करती हैं। निश्चित समय और मुहूर्त से इस ढेरी को जलाया जाता है। इस ढेरी में नई फसल की बालियां सेंकी जाती है और लोग इस ढेरी की सुलगती राख और अंगारों को घर लेकर जाते हैं। भारत की हर परंपरा के पीछे कुछ न कुछ पौराणिक तथ्य है। होली के पीछे भी एक कथा है।

क्या है होली ( Holi ) दहन

ईश्वर में आस्था भारत का मूल स्वभाव है। यहां के वेद पुराणों और ग्रन्थों में ईश्वर में आस्था रखते हुए नेक रास्ते पर चलने की सीखें बताई गई हैं। हर त्योंहार हमें आध्यात्म के और निकट ले जाता है। होली दहन के पीछे भी एक पौराणिक कथा है। हिरण्यकश्यपु एक बलवान राजा थे। अपने बल के कारण उनमें अहंकार जाग गया और वे मानने लगे कि वे ईश्वर से भी ज्यादा शक्तिशाली हैं। उन्होंने अपनी प्रजा में एलान करवा दिया कि ईश्वर की बजाय उनकी पूजा की जाए। लोग उनके डर से ऐसा ही करने लगे। लेकिन उन्हीं के पुत्र प्रहलाद ने उनका विरोध किया और भगवान नारायण को ही सर्वशक्तिमान मानने पर अड़ा रहा। हिरण्यकश्यपु ने उसे कई बार समझाया, डराया धमकाया। लेकिन प्रहलाद नहीं माना। इस पर हिरण्यकश्यपु ने अपनी बहन होलिका को प्रहलाद को समझाने का निर्देश दिया। होलिका को वरदान था कि वह आग में नहीं जलेगी। प्रहलाद जब नहीं माना तो होलिका ने प्रहलाद को गोदी में लिया और जलती आग में बैठ गई। ईश्वर में आस्था रखने वाला प्रहलाद बच गया और होलिका जलकर भस्म हो गई। तभी से होलिका दहन किया जाता है। होलिका दहन एक आध्यात्मिक संदेश भी देता है कि सर्वशक्तिमान ईश्वर है और यदि उसमें आस्था रखी जाए तो वह मनुष्य के सभी संकटों को दूर कर सकता है।

रंगो का दिन – धुलंडी

होली ( Holi ) का दूसरा दिन धुलंडी के रूप में मनाया जाता है। धुलंडी के दिन घरों में मिठाइयां बनती हैं और सुबह से ही रंगों की बौछार का सिलसिला शुरू हो जाता है। घर परिवार रिश्तेदार मित्र और पडौसी सभी एक दूसरे पर रंग डालते हैं और एक दूसरे से गले मिलकर होली की बधाई देते हैं। रंग बिरंगे इस त्योंहार को भारत में कई तरह से मनाया जाता है। कहीं हल्दी की होली खेली जाती है तो कहीं फूलों की। मथुरा के पास बरसाना में लट्ठमार होली की परंपरा भी है। इसमें पुरुष महिला को रंग लगाने का प्रयास करता है और महिला अपने बचाव में लाठी चलाती है। यह त्योंहार एक तरह से अपने मन की भड़ास निकालने का अवसर भी देता है। महिलाएं पुरुष और बच्चे सभी अपने अपने ढंग से होली का आनंद उठाते हैं। शहरों और कस्बों में होली को हुडदंग का दिन भी करार दे दिया गया है। जयपुर के विराटनगर के पास गए गांव में धुलंडी के दिन गांव के लोग आपस में रंग नहीं लगाते। वे ऐसा करना परंपरा के खिलाफ मानते है। वहां धुलंडी के दिन नृसिंग भगवान के मंदिर में मेला भरता है और सभी ग्रामीणजन भगवान नृसिंग का गुलाल अर्पित कर होली मनाते हैं।

Holi Festival

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p style=”text-align:justify;”>होली ( Holi ) उत्साह और उमंग का दिन है। फागुन के मौसम में देश में पतझड का सूखापन होता है। सर्दियां घटने लगती हैं और गर्मियों की शुरूआत होती है। ऐसे में रातें सुहानी लगने लगती हैं और दिन ताजगी भरे। चारों ओर रौनक होती है। रबी की फसलें पकने और कटने लगती हैं। घर में धन धान्य और समृद्धि आती है। और खास बात यह कि धुलंडी से हिन्दी वर्ष का आखिरी पखवाड़ा आरंभ होता है। धुलंडी के बाद चैत्र का कृष्ण पक्ष शुरू होता है और चैत्र शुक्ल की पहली तारीख से हिन्दू नव वर्ष का आरंभ होता है। होलिका दहन में नई फसल की बालियां सेंकने के पीछे भी मकसद ईश्वर को नए अन्न का भोग लगाना होता है। रंग उमंग उत्साह और समृद्धि के इस पावन त्योंहार का क्रेज शहरी युवाओं में घटता जा रहा है। युवाओं को यह त्योंहार पुरानी रूढ़ियों की तरह लगता है जबकि होली जीवन के नव संचार का प्रतीक है। गांवों में आज भी होली की उमंग फागुन लगते ही आरंभ हो जाती है। प्रकृति भी इस उमंग का संदेश देती है। पेड़ों के पीले होते पत्ते, रातों की ठंड कम होना, दिनों की अवधि बढ़ना सभी फागुन के प्रतीक हैं। गांवों में कहीं कहीं आज भी फाग गाए जाते हैं। गांवों के अल्हड़ युवाओं की टोली रात का खाना खाकर चंग और ढप लेकर टीलों में चली जाती है और सारी रात बैठ कर फागुन के गीत गाए जाते हैं। आज जिसे हुडदंग का नाम देकर बदनाम किया जाता है उसी होली को ब्रज के कुंजो में कृष्ण ने गोप गोपिकाओं के साथ खेलकर प्रेम और संयम का अनूठा पाठ पढाया था। होली एक पवित्र त्योंहार है। मन की उमंग जाहिर होनी चाहिए, लेकिन किसी के मर्म को आहत किए बिना।


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