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जयपुर में गणगौर

जयपुर उत्सवों की नगरी है। आस्था और श्रद्धा की इस पावन नगरी को ’छोटी काशी’ के नाम से भी जाना जाता है। इस शहर को ’आस्था की नगरी’ और ’छोटी काशी’ के संबोधन यूं ही नहीं मिले। इस शहर की फिजां में ही उत्सवी खुशबू है। यहां के धार्मिक लोगों में अपने उत्सवों के प्रति आग्रह देखते ही बनता है। हर त्योंहार, हर पर्व और हर उत्सव पूरे धूम धाम के साथ मनाया जाता है। उस पर तीज और गणगौर तो जयपुर के अपने त्योंहार हैं।

तीज और गणगौर इस मायने में भी देशभर में मनाए जाने वाले इस त्योंहार से जुदा हैं क्योंकि इन त्योहारों में जयपुर में शाही परिवार की प्रमुख भूमिका होती है और सारा शहर अपनी खुशियां राज परिवार के साथ साझा करता है। राज परिवार की महिलाओं द्वारा मनाई जाने वाले गणगौर पूजा अपने आप में अनोखी है। इसे देखने के लिए दुनिया के कोने कोने से पर्यटक जयपुर के त्रिपोलिया बाजार में जुटते हैं। राजपरिवार की महिलाएं सिंजारा मनाती हैं और दूसरे दिन गणगौर माता की चांदी की पालकी तैयार की जाती है। राजपरिवार की महिलाएं गणगौर माता की पूजा अर्चना कर जनानी ड्योढी से पालकी को विदा करती हैं। यह पालकी पूरे लवाजमे और गीत संगीत के साथ त्रिपोलिया गेट से निकलती है। इस शानदार सवारी को देखने के लिए पूरा शहर परकोटा बाजारों में उमड़ पड़ता है। सवारी देखने के लिए आई भीड़ सवारी गुजरने के बाद मेले में तब्दील हो जाती है। इसके दूसरे दिन बूढी गणगौर की सवारी भी निकलती है। बूढी गणगौर निकलने के पीछे भी एक सशक्त तर्क है। गणगौर के मेले की आपा-धापी में बच्चे और बूढे गणगौर की सवारी नहीं देख पाते। उन्हीं के लिए दूसरे दिन बूढी गणगौर की सवारी निकालने का प्रावधान किया गया। ताकि बच्चे, महिलाएं और बूढे आराम से सवारी को देख सकें।

बदली परंपराएं-

जयपुर परंपराओं का शहर है। लेकिन बदलाव की लहर में परंपराएं टूटने लगी हैं। बरसों से हर बरस राज परिवार गणगौर की सवारी को शाही लवाजमे के साथ विदा करता है। लेकिन इस बार सवारी के साथ 30 हाथियों का लवाजमा दिखाई नहीं दिया। इस मायने में यह सवारी अन्य वर्षों की तुलना में फीकी रही। ज्ञातव्य है कि एनीमल वेलफेयर सोसायटी के एतराज के बाद राज्य सरकार ने हाथी उत्सव और फिर गणगौर की इस सवारी के लिए हाथी उपलब्ध नहीं कराए

शाम को सवारी से सड़कें हुई रोशन-

जयपुर में शनिवार की शाम गणगौर सवारी से उत्सवमयी हो गई। त्रिपोलिया बाजार के दोनो ओर दर्शकों के हुजूम लग गए। मौसम की तरावट ने भी सवारी के उत्सव में चार चांद  लगा दिए। जयपुर में शनिवार 13 अप्रैल को त्रिपोलिया गेट से गणगौर माता की पारंपरिक सवारी धूमधाम से निकली। लवाजमे में सबसे आगे पचरंगा लिए गज तथा शाही बंदूकें, घोड़े, ऊंट और बैलगाड़ी शामिल रहे। इसमें हर साल की तरह निकलने वाला 30 हाथियों का लवाजमा नजर नहीं आया। एनिमल वेलफेयर सोसायटी की आपत्ति के बाद पर्यटन विभाग द्वारा गज उपलब्ध नहीं कराए जाने से वर्षों पुरानी परंपरा टूट गई। जनानी ड्योढी से राजसी ठाठ बाट से चांदी की पालकी में गणगौर माता की शाही सवारी शाम 5.40 बजे निकली। इस शानदार शाही उत्सव में लवाजमे के साथ राजस्थानी लोक कलाकार सांस्कृतिक रंगों की छटा बिखेरते चल रहे थे। रविवार शाम 6 बजे त्रिपोलिया गेट से ही बूढी गणगौर की सवारी भी निकली। यह विभिन्न मार्गों से होती हुई पौंड्रीक उद्यान पहुंचकर सम्पन्न हुई।

धूमधाम से मनाया सिंजारा-

इससे पहले शुक्रवार को सिंजारा पर्व मनाया गया। इस मौके पर सुहागिनों ने हाथों पर मेंहदी रचाई और गणगौर पूजन किया। शुक्रवार को मनाए गए सिंजारा पर्व में घरों में घेवर फीणी आदि पकवानों की खुशबू महकती रही। नव विवाहिताओं के ससुराल से सिंजारा आया। चांदपोल स्थित प्राचीन रामचंद्र जी मंदिर में शुक्रवार को सीताजी को मेहंदी धारण कराई गई। सिंजारे पर नाहरगढ थाने के पास रामद्वारा मंदिर में संगीतमय सिंजारा महोत्सव का आयोजन किया गया जिसमें मोहम्मद अमान ने शास्त्रीय गायन और अनवर हुसैन नियाजी ने कव्वाली पेश कर दर्शकों का मन जीत लिया।

मंदिरों में खीर-घेवर का भोग

गणगौर के अवसर पर मंदिरों में विशेष भोग व पूजा के कार्यक्रम सम्पन्न हुए। गोविंददेवजी मंदिर में राजभोग झांकी में खीर घेवर का भोग लगाया गया। चौडा रास्ता स्थित राधा दामोदर मंदिर, पुरानी बस्ती स्थित राधा गोपीनाथ जी मंदिर, बड़ी चौपड़ स्थित लक्ष्मीनारायण मंदिर और पानों का दरीबा स्थित सरस निकुंज में भी भगवान को खीर घेवर का भोग लगाया गया। फतेह सिंह भौमिया विकास समिति की ओर से प्राचीन गणगौर की सवारी भी निकाली गई।

गणगौर पूजन का शुभ मुहूर्त-

गणगौर पूजा का शुभ का चौघडिया सुबह 7.44 से 9.18 बजे तक, अभिजित मुहूर्त दोहपर 12.05 से 12.51 बजे तक था। दोहपर 12.27 से शाम 5.51 तक चर, लाभ और अमृत के चौघडिये में भी पूजा की गई।

गणगौर – हमारी परंपराएं

राजस्थान में गणगौर का यह त्योहार चैत्र शुक्ल तृतीया को मनाया जाता है। होली के दूसरे दिन (चैत्र कृष्ण प्रतिपदा) से जो नवविवाहिताएँ प्रतिदिन गणगौर पूजती हैं, वे चैत्र शुक्ल द्वितीया के दिन किसी नदी, तालाब या सरोवर पर जाकर अपनी पूजी हुई गणगौरों को पानी पिलाती हैं और दूसरे दिन सायंकाल के समय उनका विसर्जन कर देती हैं। यह व्रत विवाहिता लड़कियों के लिए पति का अनुराग उत्पन्न कराने वाला और कुमारियों को उत्तम पति देने वाला है। इससे सुहागिनों का सुहाग अखंड रहता है।

नवरात्र के तीसरे दिन यानि कि चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की तीज को गणगौर माता (माँ पार्वती) की पूजा की जाती है। पार्वती के अवतार के रूप में गणगौर माता व भगवान शंकर के अवतार के रूप में ईशर जी की पूजा की जाती है। प्राचीन समय में पार्वती ने शंकर भगवान को पति (वर) रूप में पाने के लिए व्रत और तपस्या की। शंकर भगवान तपस्या से प्रसन्न हो गए और वरदान माँगने के लिए कहा। पार्वती ने उन्हें ही वर के रूप में पाने की अभिलाषा की। पार्वती की मनोकामना पूरी हुई और पार्वती जी की शिव जी से शादी हो गयी। तभी से कुंवारी लड़कियां इच्छित वर पाने के लिए ईशर और गणगौर की पूजा करती है। सुहागिन स्त्री पति की लम्बी आयु के लिए यह पूजा करती है। गणगौर पूजा चैत्र मास के कृष्ण पक्ष की तृतीया तिथि से आरम्भ की जाती है। सोलह दिन तक सुबह जल्दी उठ कर बगीचे में जाती हैं, दूब व फूल चुन कर लाती है। दूब लेकर घर आती है उस दूब से दूध के छींटे मिट्टी की बनी हुई गणगौर माता को देती है। थाली में दही पानी सुपारी और चांदी का छल्ला आदि सामग्री से गणगौर माता की पूजा की जाती है।

आठवें दिन ईशर जी पत्नी (गणगौर) के साथ अपनी ससुराल आते हैं। उस दिन सभी लड़कियां कुम्हार के यहाँ जाती हैं और वहाँ से मिट्टी के बरतन और गणगौर की मूर्ति बनाने के लिए मिट्टी लेकर आती है। उस मिट्टी से ईशर जी, गणगौर माता, मालिन आदि की छोटी छोटी मूर्तियाँ बनाती हैं। जहाँ पूजा की जाती है उस स्थान को गणगौर का पीहर और जहाँ विसर्जन किया जाता है वह स्थान ससुराल माना जाता है।


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