जयपुर परम्पराओं का शहर है। यंहा व्यापार भी एक विशेष संस्कृति और पंरम्परा का हिस्सा है। यह गौर करने वाली बात है। कि जब आमेर राजघराने ने एक नए शहर की कल्पना की तो उन्हे यह पता था कि एक शहर को युगों तक अस्तित्व में रखने के लिए व्यापार बहुत जरूरी है। इसलिए वास्तुकार विद्याधर भट्टाचार्य ने जब एक नए शहर का ‘‘डिजाइन’’ तैयार किया तो उसमें परकोटे के भीतर मुख्य सड़कों के दोंनों ओर दुकानों को तरजीह दी। गौरतलब है कि परकोटे में मुख्य मार्गों पर दुकानों और सार्वजनिक भवनों के अलावा निजी रिहायशी मकानों के मुख्य द्वार नही खुलतें। 1727 में जयपुर की विधिवत स्थापना के बाद व्यापार के लिए परकोटे में ऐसे उद्यमियों को बसाया गया जो सैकड़ों वर्षों तक पांरपरिक उद्योग-धंधों और कलाओं से जुड़े रहे। इन्ही पांरपरिक उद्योगो में से एक है। ‘‘चाँदी के बर्फ’’ तैयार करना। चाँदी के वर्क का आध्यात्मिक महत्व होने के साथ-साथ इनका इस्तेमाल अनेक रूप से किया जाता है। हिन्दू आस्था के तहत गणेश और हनुमान की प्रतिमाओं पर सिदूंर का चोला और चाँदी के वर्फ के वस्त्र के रूप में चढ़ाए जाते है। इसके अलावा इनका उपयोग मिठाईयों, औषधियां, पान और जर्दे में बहुतायत से किया जाता है। इसे तैयार करने वाले कारीगरों को पन्नीगर कहते हैं जयपुर के सुभाश चौक इलाके में चारदरवाजा मार्ग पर पन्नीगरों का रास्ता है। जहां विशेष तकनीक से वर्फ तैयार किये जाते है। इलाके के लगभग हर घर में पांच-सात कारीगर लगातार 12-13 घटें हथौड़ी चलाकर चाँदी के ये वर्क तैयार करते है। इसी इलाके के बुजुर्ग इस कार्य को व्यापार नहीं मानते। वे कहते है, कोई कार्य जब सैकड़ों वर्षो से लगातार किया जाता है, तो वह संस्कृति बन जाता है।
पहले पहल चांदी का वर्क लुकमान हकीम ने औषधियों में प्रयोग के लिए बनाया। कालान्तर में इसके इस्तेमाल में विविधताएं आती गई। इन कारीगरों के परदादा, दादा और वालिद ने जीवनभर यही कार्य किया, उन्होनें भी पन्नगरी को ही अपने जीवन यापन का हिस्सा बनाया। वे चाहते है, कि यह कार्य उनकी आने वाली पीढि़या भी करें।
एक खास बात यह है कि चांदी को कूटने के लिए एक विशेष किताब का इस्तेमाल किया जाता है। जयपुर के राजाओं ने पन्नगिरों को सांगानेर से बुलाकर जयपुर में बसाया था, महल के पास सुभाष चौक में। लेकिन वक्त के तेज बहाव में परंपराओं के उखड़ते पांवों को सरंक्षण देने के लिए राजा-महाराजाओं के राज नहीं रहे। फिर नई पीढ़ी के भी नए सपने है, तरक्की के। ऐसे में इस दुर्लभ अजीबोगरीब पेशे को दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने के सपने और युगों तक ये कार्य चलने की कल्पना धूमिल होती नजर आती है।
वर्तमान में यही कार्य मशीनों से भी होने लगा है, हो सकता है एक दिन पूरी तरह मशानों से चांदी के बर्फ बनें। लेकिन तब यह कार्य एक संगीतमय संस्कृति नही रहेगा, बल्कि एक उद्योग बन जाएगा।
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