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सरस्वती नदी : एक वरदान

सरस्वती नदी : एक वरदान (Saraswati River : A Boon)

सरस्वती नदी अब तक एक रहस्य बनी हुई थी। पिछले तीस वर्षों से भू-वैज्ञानिक इस रहस्य को सुलझाने के प्रयास में लगे हैं। हाल ही इसरो के वैज्ञानिकों के दावा किया है सरस्वती नदी राजस्थान के नीचे भूमिगत रहकर बह रही है। अगर ये तथ्य सही साबित होते हैं तो राजस्थान का नक्शा ही बदल जाएगा। थार का रेगिस्तान हरे भरे मैदानों में तब्दील हो जाएगा और यहां तेजी उद्योग धंधे पनपेंगे। उपग्रह से प्राप्त छायाचित्रों में सरस्वती को अंत:प्रवाहित नदी के तौर पर दर्शाया गया है। भारतीय अनुसंधान संस्थान इसरो ने भी समय समय पर सरस्वती के प्रवाह के चित्र प्रेषित किए। लेकिन आज भी सरस्वती एक पहेली बनी हुई है-

अपवाह

इतिहास और तथ्यों पर नजर डाली जाए तो स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि कुछ सदियों पूर्व भारत की धरती पर सरस्वती का प्रवाह था। तथ्यों के अनुसार सरस्वती का अपवाह क्षेत्र भारत और पाकिस्तान में था। यह हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान और पंजाब राज्यों की भूमि पर बहती थी। उपग्रहों से प्राप्त चित्रों के अनुसार इस नदी की लंबाई 1600 किमी है। इसका उद्गम स्थल हिमालय की शिवालिक पर्वतमाला में उत्तराखंड के आदि बद्रीनाथ से माना जाता है। सरस्वती के अपवाह तंत्र में अन्य सहायक नदियां वामांगी, दृषवती और हिरण्यवती थी।

वैज्ञानिक खोज

वैज्ञानिकों का दावा है कि सरस्वती अंत:प्रवाही नदी है और विलुप्त होने के बाद से यह लगातार भूमिगत होकर बही है। कुछ वर्ष पहले राजस्थान के जैसलमेर में एक गांव में लोगों ने पानी के लिए ट्यूबवैल खोदे और उनमें 1000 फीट तक के पाइप डाल दिए। अचानक एक चमत्कार हुआ। ट्यूबवैल को बिना बिजली या इंजन से जोड़े ही इन ट्यूबवैलों में से पानी की धाराएं फूट पड़ी। पानी साफ और मीठा था। यह घटना एक प्रमुख राष्ट्रीय न्यूज चैनल पर प्रमुखता से दिखाई गई। वर्तमान में भी यू-ट्यूब पर इस चैनल पर प्रसारित खबर के अंश दिखाए जा रहे हैं। घटना की जानकारी मिलते ही भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर और इसरो के वैज्ञानिक जैसलमेर की इस जगह पर पहुंच गए। वैज्ञानिकों ने ट्यूबवैल से निकले जल की कार्बन डेटिंग जांच की और यह दावा किया कि जल वैदिक काल की नदी का ही है। वैज्ञानिकों ने यह संभावना भी जताई कि यह जल सरस्वती नदी का ही हो सकता है।

विगत तीस वर्षों से वैज्ञानिक सरस्वती के मूल स्वरूप और उससे जुड़ी असली कहानी की खोज में जुटे हुए हैं। वैज्ञानिकों ने ऋग्वेद में वर्णित सरस्वती और वर्तमान में मिले साक्ष्यों का मिलान भी किया है।  महाभारत के अनुसार सरस्वती हरियाणा के यमुनानगर से ऊपर और शिवालिक पहाड़ियों से नीचे आदि बद्री नामक स्थान से निकलती है। वर्तमान में बद्रीनाथ से निकली एक धारा को भी सरस्वती कहा जाता है। कुछ दूर जाकर यह धारा विलुप्त हो जाती है। वैदिक काल में वर्णित सरस्वती के किनारे ब्रह्मावर्त यानि कुरूक्षेत्र था। आज भी कुरूक्षेत्र मौजूद है। जहां कई जलाशल पाए जाते हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि कोई नदी जब सूखती है तो अर्द्ध चंद्राकार क्षेत्र छोड़ देती है जो बाद में झील बन जाते हैं। वर्तमान में कुरूक्षेत्र का ब्रह्मसरोवर और पेहवा की झीलें भी अर्द्ध चंद्राकार में ही हैं।

भूगर्भिक खोजों से पता चला है कि इस क्षेत्र में कभी भयंकर भूकंप आए। जिससे जमीन ऊपर उठ गई और यहां की नदियों का रुख मुड गया। वैदिक काल में सरस्वती की सहायक नदी थी दृषद्वती। जमीन जब ऊपर उठी तो सरस्वती का पानी दृषद्वती में मिल गया और दृषद्वती उत्तर पूर्व की ओर बहने लगी। आज की यमुना नदी ही वैदिक काल की दृषद्वती नदी है। वैज्ञानिक हडप्पा सभ्यता को सरस्वती नदी सभ्यता से जोड़ते हैं। हडप्पाकालीन 2600 बस्तियों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जबकि पाकिस्तान की सिंधु नदी सभ्यता में केवल 265 बस्तियों के प्रमाण ही मिले हैं। वैज्ञानिक अब ये कह रहे हैं कि सरस्वती नदी सभ्यता ने सिंधु नदी घाटी सभ्यता के निर्माण में बहुत बड़ा योगदान दिया है।

सरस्वती नदी के अस्तित्व की खोज करने वाले भूवैज्ञानिकों ने भी ऋग्वेद और पौराणिक वैदिक ग्रंथों का सहारा लिया है। कुछ भू-वैज्ञानिक मानते हैं कि फिलहाल हरियाणा से राजस्थान होकर बहने वाली नदी घग्घर हकरा नदियां ही प्राचीन सरस्वती नदी की मुख्य सहायक नदियां थीं। ये नदियां ईसा से दो हजार साल पहले तक पूरे प्रवाह से यहां से बहती थी। उस समय पर यमुना और सतलुज की कुछ धाराएं भी सरस्वती में मिलती थी। इसके अलावा दृष्टावती और हिरण्यवती नदियां भी इसकी सहायक नदियां थीं जो बाद में विलुप्त हो गई। वैज्ञानिकों का मानना है कि भूगर्भिक हलचलों के कारण यमुना और सतलुज नदियों ने अपना अपवाह मार्ग बदल लिया था और दृष्टावती नदी भी सूख गई थी। इसलिए सरस्वती लुप्त हो गई। वेदों में सरस्वती को नदीतमा की उपाधि दी गई है, कहा जाता है कि वैदिक सभ्यता में सरस्वती सबसे मुख्य और सबसे बड़ी नदी थी। भारतीय अनुसंधान संस्थान इसरो द्वारा किए गए सतत शोधों से यह पता चलता है कि आज भी सरस्वती नदी भूमिगत होकर हरियाणा, पंजाब और राजस्थान के नीचे बहती है।

सरस्वती सभ्यता विराट और प्राचीनतम

अभी तक यही माना जाता है कि सिंधु घाटी सभ्यता ही प्राचीनतम सभ्यता है। लेकिन सरस्वती नदी के बारे में लगातार हो रहे शोध और अनुसंधान के बाद इतिहासकारों की राय बदलती नजर आ रही है। वैज्ञानिकों के रिसर्च के मुताबिक उत्तर में हिमालय की तलहटी मांडा से लेकर नर्मदा ताप्ती और उत्तर प्रदेश के कौशांबी से लेकर बलूचिस्तान के कंधार तक उस पुरानी विशाल सभ्यता के अंश मिले हैं। अनुमान लगाया गया है कि यह सभ्यता पूरे उत्तर भारत में नदियों के किनारे फैली थी। कुछ विद्वानों ने इस सभ्यता को उस दौर की सबसे बड़ी नदी सरस्वती की सभ्यता कहा है।

वैज्ञानिकों का दावा है सरस्वती नदी घाटी सभ्यता दुनिया की तमाम नदी घाटी सभ्यताओं से कई गुना बड़ी थी। सरस्वती नदी घाटी सभ्यता को सैंधव सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है। कहा गया है कि सुमेर और बेबीलोन, दजला और फरात, हित्ती और अनातोलिया, यहूदी सभ्यता पुलिस्तिन, यूनान, क्रीट ओर रोम की सभ्यताएं, मिश्र की नील नदी घाटी सभ्यता, ईरान और हखामशी सभ्यता, मंगोल और चीनी सभ्यताएं आदि सब सभ्यताएं सरस्वती नदी घाटी सभ्यता से बहुत छोटी थी।

यहां पुरावेत्ताओं, इतिहासकारों और भूवैज्ञानिकों के सामने एक रोचक उलझन भी पैदा हो गई। दरअसल जितनी भी पुरा सभ्यताओं के प्रमाण मिले थे, उनमें यह जाहिर होता है कि वे किसी न किसी साम्राज्य की देन थी। लेकिन सरस्वती नदी घाटी की विशाल सभ्यता में किसी साम्राज्य अथवा युद्ध से थोपी गई सभ्यता के प्रमाण नहीं मिले। सरस्वती नदी सभ्यता किसी साम्राज्य के साये में नहीं पली। वह युद्ध से भी परिचित नहीं थी। अस्त्र शस्त्रों के प्रमाण भी सामान्य हैं और नगरों तक में कोई विशेष युद्ध औजार नहीं मिले। न ही नगर भित्तियों पर युद्धों से संबंधित या हथियारों से संबंधित चित्र मिले। कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि हजारों सालों तक सरस्वती सभ्यता को किसी युद्ध का भय नहीं था।
दावा किया गया है सरस्वती सभ्यता के विकास की प्रक्रिया बहुत धीमी थी। यह युद्ध या संघर्ष के किसी उलटफेर का परिणाम नहीं थी।

’मोहनजोदड़ो’ यानि मृतकों की डीह नगर का निर्माण भी सात बार हुआ। अर्थात यहां सतत संघर्ष का दौर जारी था। लेकिन सरस्वती सभ्यता सांस्कृतिक विकास का परिणाम थी। यहां दर्शन, कला और विज्ञान की कलाएं विकसित हुई।

वैदिक इतिहास

सरस्वती की चर्चा  वेदों में भी की गई है। ऋग्वेद में इसे अन्नवती और उदकवती के नाम से उल्लेखित किया गया है। साफ है कि गंगा की तरह सरस्वती भी अपने मैदानों में खूब अन्न और रोजगार उपजाती रही होगी। इस नदी में साल भर पानी होता था। ऐसा माना जाता है कि सरस्वती पंजाब के सिरमूर से अंबाला, कुरूक्षेत्र, करनाल, पटियाला और सिरसा होते हुए कांगार नदी में मिल जाया करती थी। प्राचीन काल में राजस्थान में इस नदी से बड़े भूभाग पर सिंचाई की जाती थी। मनुसंहिता में सरस्वती और कांगार नदियों के बीच के भूभाग को ब्रह्मावर्त कहा गया है। जिसे आज के कुरूक्षेत्र के रूप में जाना जाता है।

हिन्दू वेदों में वर्णित जानकारी के अनुसार सरस्वती यमुना के पूर्व में और सतलुज के पश्चिम में बहती थी। ताण्डय और जैमिनीय ग्रंथों में उल्लेख किया गया है कि सरस्वती मरुस्थल में सूख गई थी। महाभारत में सरस्वती के प्लक्षवती, वेदस्मृति, वेदवती आदि नामों का जिक्र किया गया है, साथ ही यह भी उल्लेख है कि सरस्वती मरुस्थल में ही विनाशन नामक किसी स्थान पर विलुप्त हो गई थी। महाभारत और वायुपुराण में सरस्वती नदी को देवी स्वरूप बताया गया है और उसके पुत्रों और उनसे जुड़ी कथाओं का भी उल्लेख किया गया है। महाभारत के शल्यपर्व और शांति पर्व में ये उल्लेख मिले हैं। दसवीं सदी के विद्वान कवि राजशेखर ने अपने काव्य में एक मिथक का जिक्र किया है जिसमें उन्होंने कहा कि एक बार सरस्वती ने ब्रह्मा की तपस्या की और पुत्र प्राप्ति की कामना की। तब उनके लिए ब्रह्मा ने पुत्र की रचना की। उस पुत्र का नाम काव्यपुरुष था।

ऋग्वेद के चौथे भाग को छोड़कर शेष सभी भागों में सरस्वती नदी का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद की ऋचाओं में कई श्लोक सरस्वती की महिमा का गायन करते हैं। वैदिक काल में सरस्वती के तट पर रहकर ऋषियों ने वेद रचे और वैदिक ज्ञान का विस्तारण किया। इसी वजह से सरस्वती को ज्ञान और विद्या की देवी सरस्वती के रूप में भी पूजा गया।

यजुर्वेद की वाजस्नेयी संहिता में उन पांच नदियों का उल्लेख है जो इसकी सहायक नदियां थी।  भूवैज्ञानिकों के अनुसार राजस्थान के बाड़मेर और जैसलमेर में इन सूखी हुई नदियों के अवशेष पंचभद्र तीर्थ पर देखे जा सकते हैं। वाल्मीकि रामायण में भी सरस्वती का प्रसंग मिलता है। इसमें एक जगह उल्लेख है कि भरत ने कैकय देश से अयोध्या लौटते समय सरस्वती और गंगा नदियां पार की थी। महाभारत के  शल्यपर्व में सरस्वती नदी के तटवर्ती तीर्थों का वर्णन किया गया है। इन सभी तीर्थों की यात्रा बलराम ने की थी। कहीं कहीं ये भी जिक्र किया गया है कि कई राजाओं ने सरस्वती के तट पर यज्ञ किए थे। वर्तमान में भूवैज्ञानिकों ने  सूखी हुई सरस्वती का मार्ग खोज लिकाला है और समानांतर खुदाई में पांच हजार वर्ष पुराने शहर मिले हैं। जिनमें कालीबंगा, पीलीबंगा, लोथल आदि शामिल हैं। यहां से कई कुंडों के अवशेष  भी मिले हैं।

गुजरात के एक स्थान सिद्धपुर को भी मूल सरस्वती के किनारे बसा हुआ नगर ही माना जाता है। इसके नजदीक ही बिंदुसर नाम का एक तालाब भी है। दावा किया जाता है  कि यही वह रेगिस्तानी स्थान विनशन है, जहां से सरस्वती लुप्त हो गई थी। यहां से निकलने वाली नदी को भी सरस्वती ही कहा जाता है। श्रीमद्भागवत में भी यमुना, दृषद्वती के साथ साथ सरस्वती का जिक्र भी किया गया है। महाकवि कालिदास ने अपने ग्रंथ मेघदूत में सरस्वती का ब्रह्मावर्त के अंतर्गत वर्णन किया है। सरस्वती का नाम इतना प्रसिद्ध हुआ कि कालांतर में कई नदियों का नाम सरस्वती रख दिया गया।

सिंधी पारसियों के धर्मग्रंथ अवेस्त में सरस्वती का जिक्र हरहवती के नाम से किया गया है। गौरतलब है कि पारसी भाषा में स का उच्चारण ह के रूप में किया जाता था।

सरस्वती से राजस्थान का विकास

अगर वैज्ञानिक दावे सच हुए और राजस्थान के रेगिस्तानी भाग ’थार’ के नीचे वास्तव में द्रुतवेग से प्रवाहित हो रही सरस्वती प्रत्यक्ष रूप में प्रमाणित हो जाती है तो राजस्थान की तस्वीर ही बदल जाएगी। जल की अपार उपलब्धता से यहां ये कुछ विशेष प्रभाव पड़ेंगे-

-राजस्थान के थार मरुस्थल को हरा भर और वन युक्त किया जा सकेगा। मरूस्थल तेजी से सीमित होगा और जमीनों के भाव बढ़ेंगे। इससे किसानों को फायदा होगा और तेज आर्थिक विकास होगा।

-पूर्वी राजस्थान की तरह पश्चिमी राजस्थान भी पैदावार के मामले में आगे बढ़ेगा। रेगिस्तान में हजारों वर्ग किमी भूमि रेगिस्तान के कारण बंजर पड़ी हुई है। जल की कमी के कारण यहां पशुपालन और कृषि नगण्य ही रहती है। पानी की मौजूदगी से पशुपालन और कृषि पर बड़ा सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

-नदी की मौजूदगी होने से पर्यावरणीय और मौसमी परिवर्तन होंगे। अकाल और सूखा पूरी तरह समाप्त हो जाएगा। हरा भरा और वन प्रदेश हो जाने के बाद यहां के तापमान में गिरावट आएगी और वनाच्छादित प्रदेश होने के कारण बारिश भी अच्छी होगी।

-जल मिलने से लोगों का पलायन लगभग खत्म हो जाएगा। स्थानीय लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे। विस्तृत भूभाग का सदुपयोग होगा। एक साथ कई उद्योग धंधे विकसित होंगे। पानी की कमी, संसाधनों का अभाव और गर्मी के कारण राजस्थान के पश्चिमी शुष्क जिलों में कोई नौकरी भी नहीं करना चाहता। नदी का जल मिलने के बाद यहां रोजगार के अवसर तेजी से बढ़ेंगे।

-तेजी से औद्योगीकरण होगा। बड़े उद्योंगों के लिए सबसे ज्यादा आवश्यकता प्रचुर मात्रा में जल की उपलब्धता ही होती है। इस नदी का जल मिलने के बाद पश्चिमी राजस्थान में बड़े उद्योगों की बाढ आ जाएगी। औद्योगिकरण का सीधा फायदा राजस्थान की अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा और राजस्थान समृद्ध होगा।

-पर्यटन के मामले में भी पश्चिमी राजस्थान खास मुकाम हासिल करेगा। भूमिगत नदी का होना अपने आप में एक बहुत बड़ा पर्यटनीय मुद्दा होगा। सतत समृद्धि से होटलों का विकास होगा। लोग राजस्थान की पश्चिमी इलाकों में स्थित पर्यटन स्थलों का दौरा करना चाहेंगे।

-प्रदेश की जलसंकट की कमी दूर हो सकेगी। राजस्थान में प्राय: गर्मियों में पानी की कमी हो जाती है। इससे बड़े पैमाने पर जलसंकट खड़ा हो जाता है। सरस्वती के जल को राज्य में पेयजल के रूप में इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसके साथ साथ ऊर्जा के नए स्रोतों का भी आविष्कार होगा।

इस तरह कहा जा सकता है कि अगर राजस्थान की जमीन के नीचे सरस्वती नदी का अथाव प्रवाह सच साबित हुआ तो राजस्थान हर क्षेत्र में विकास करेगा और उत्पादन के मामले में पंजाब और हरियाणा को भी पीछे छोड़ देगा। जैसलमेर में धरती से फूट रही धाराओं को देखकर ग्रामीणों के चेहरे खिले हुए हैं। जैसलमेर में इसे चमत्कार की तरह देखा जा रहा है। वैज्ञानिकों का दवा है कि अगर वास्तव में यह धारा सरस्वती नदी की हुई तो सच में राजस्थान में बड़ा चमत्कार हो जाएगा।


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