जयपुर के प्राचीनतम मन्दिरों में से मोती डूंगरी के गणेश जी और गढ़गणेश जी के मंदिर अति प्राचीन मंदिर है। इस मंदिर में सभी कार्यो की निर्विध्न पूर्ण होने के लिए लोग अपनी आस्थानुसार पूजा अर्चना करतें हैं क्योंकि प्रथमपूज्य गणेश ‘विध्नहर्ता’ कहलाते है। यह मंन्दिर जवाहर लाल नेहरू मार्ग पर स्थित होने के कारण सभी जयपुर वासी पूर्जा अर्चना के लिए इस मन्दिर में प्रात: व सायं आते है। इस मन्दिर में स्थापित गणेश प्रतिमा को जयपुर नरेश श्री माधोसिंह प्रथम की पटरानी के पीहर से लाया गया था। सेठ पल्लीवाल यह मूर्ति लेकर मावली उदयपुर से जयपुर आये थे और उन्हीं की देखरेख में मोती डूंगरी की तलहटी में गणेश जी का मन्दिर बनवाया गया। राजा श्री माधोसिंह जी स्वयं पूजा करने इसी मंदिर में आते थे।
गणेश मन्दिर मोती डूंगरी जयपुर

इस मूर्ति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह मूर्ति आस-पास के गणेश मंदिरों में सबसे विशाल है और इसकी स्थापना वैदिक अनुष्ठान से की गई है ओर यह बांयी और व्रकाकार बनी हुई है।
मंदिर में सभी कार्य नियमानुसार यथासमय होते है। जैसे प्रतिदन सात आरतियाँ होती है। सबसे पहले प्रात: 5 बजे मंगला आरती; प्रात: 9:30 बजे गणेश जी की प्रतिमा का श्रंगार होता है। फिर आरती होती है। मंगला व श्रंगार के बीच में धूपआरती होती है। प्रात: 11:30 बजे भोग आरती होती है। सायं काल सध्या आरती होती है। इसमें सैकड़ों भक्त शामिल होते है, 9:30 बजे शयन आरती होती है और मंदिर के कपाट बंद कर दिये जाते है।
इस मंदिर में बुधवार के दिन विशेष मेला लगता है। जिसमें दूर-दूर से लोग इस मेंले में शामिल होने आते है। विदेशी लोग भी पूर्ण आस्था के साथ इस मंदिर में आते हैं। मंदिर की सम्पूर्ण व्यवस्था श्री गणेश मंदिर ट्रस्ट के द्वारा की जाती है।
आज जो मन्दिर हमें दिखाई दे रहा है पहले वहाँ एक छोटा सा मंदिर था। धीरे-धीरे इस मंदिर की स्थिति में सुधार होता गया और इस दौरान मंदिर में गर्भग्रह का निर्माण करवाया गया। मंदिर के आंगन का विस्तार कर नए प्रवेश द्वार बनवाए गए। सीढि़यों पर संगमरमर के पत्थर लगाये गये । नया सुन्दर रंग-रोगन करवाया गया। इस मंदिर में अन्य शहरों से आने वाले दर्शनार्थियों के लिए ठहरने के लिए धर्मशाला का निर्माण करवाया जा रहा है।
मंदिर के आस-पास प्रसाद के लिए नई दुकानें भी खुल गई हैं। इन दुकानों पर प्रसाद, फूल-माला, धूप अगरबत्ती चीजों का विक्रय होता है। मंदिर के पास में अलग से जूते-चत्पलों की रखने की व्यवस्था भी की गई है। जहाँ दर्शनार्थी टोकन लेकर अपने जूते-चप्पलों को सुरक्षित रख सकते है। मंदिर में सभी पंक्तिबद्ध होकर दर्शन का लाभ उठाते है। इस मंदिर से आने व जाने वाला प्रत्येक व्यक्ति्त चाहे वह किसी भी धर्म का हो अपना वाहन रोककर या पैदल जाने वाला थोड़ी देर रूककर अपना सिर अवश्य झुका देता है। नए वाहन खरीदने वाले लोग सबसे पहले यहीं अपना वाहर लाकर पुजारी के हाथों से अपने वाहन पर गणेशजी का चिन्हं रोली द्वारा बनवाते है, माला चढ़वाते है। प्रसाद भोग लगाते है, और आर्शीवाद लेकर अपने वाहन को ले जाते है, यह हमारी संस्कृति है, गणेश चतुर्थी का दिन भव्य उत्सव की तरह मनाया जाता है। यह उत्सव एक सप्ताह तक चलता है। जो पुण्य स्नान के आयोजन से शुरू होता है। इस दौरान मंदिर में भजन-र्कीर्तन किया जाता है। गणेश जी की प्रतिमा का विशेष श्रंगार किया जाता है। प्रतिमा को नया वस्त्र व मुकुट पहनाया जाता है। गणेश चतुर्थी के दिन अपार संख्या में श्रृद्धालु भाग लेते है। दूसरे दिन शाम के समय गणेश जी की भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर में शुरू होकर मुख्य मार्गो से होती हुई नगर के सबसे प्राचीन मंदिर गड़गणेश पर जाकर समाप्त होती है।
‘‘पुक्ष नक्षत्र विशेष कर बुधवार के दिन पड़ने पर महत्व ओर भी बढ़ जाता है। पुक्ष नक्षत्र के दिन 201 किलो पंचामृत से गणेश जी का अभिषेक किया जाता है। मंदिर में जो भी प्रसाद रोज भोग लगाया जाता है, वह शुद्ध देशी घी का ही बना होता है। सप्ताह में एक दिन बुधवार को दाल, बाटी, चूरमा का भोग लगाया जाता है।
पूरे देश से गणेश जी के नाम रोजाना सैकड़ो पत्र आते हैं। इन पत्रों में विशेष रूप से विवाह के निमंत्रण पत्र होते है। कई लोग अपनी इच्छाओं की पूर्ति हेतु ‘मनोती’ पत्र भी भेजते है। सभी आने वाले पत्रों को पुजारी स्वयं प्रतिमा के समक्ष पढ़कर सुनाते है और कामना करते है, कि भक्तों की सम्पूर्ण कामनाएं पूर्ण हों। इस मंदिर के पास शिव मन्दिर भी बना हुआ है। जहाँ भक्त गणेश जी के दर्शन के बाद शिव मंदिर में भी जाते है, इसी के सामने माँ गौरी व पंचमुखी हनुमानजी का मंदिर भी है। जो सीढि़यो द्वारा चढ़कर जाया जाता है। मूर्ति बहुत ही सुन्दर व देखने योग्य है।
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