आमेर और फिर जयपुर पर राज करने वाले कछवाहा राजपूत शासक ने 12 वीं सदी के मध्य में आमेर पर विजय प्राप्त की और फिर पहाड़ियों से घिरे इस सूबे को अपनी राजधानी बना लिया। कछवाहा शासकों ने अगली छह सदियों तक यहां शासन किया। आमेर में कछवाहों की शक्ति और संपदा में जबरदस्त इजाफा हुआ और मुगलों से अच्छे संबंध स्थापति करने के बाद इसमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। आमेर में इन राजाओं की छतरियां यानि समाधियां आज भी मौजूद हैं।
आमेर कस्बे में दिल्ली रोड पर दीवार से घिरे एक मैदान में 6 बड़ी, 8 मध्यम आकार की और 12 छोटे आकार की छतरियां हैं। ये छतरियां आमेर के राजाओं, उनके परिवार के सदस्यों और वंशजों की समाधियां हैं। इनमें छह बड़ी छतरियां राजा भारमल, राजा भगवंत दास, राजा मान सिंह, राजा जय सिंह, राजा राम सिंह, और राजा विष्णु सिंह की हैं।
Video: Cenotaphs Of Kachhawa Rulers
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मध्यम आकार की छतरियां राजपरिवार के उन सदस्यों और प्रधानों की हैं जिनकी मृत्यु कम उम्र में हो गई थी। उन्हीं की स्मृति में मध्यम आकार की ये छतरियां बनाई गई। शेष छोटी छतरियां राजवंश के उन बच्चों की है। जिनकी मौत किन्हीं कारणों से बचपन में ही हो गई थी। राजा विष्णु सिंह के बाद के शासकों की छतरियां यहां आमेर में नहीं हैं। क्योंकि राजा विष्णु सिंह के स्वर्गवास के बाद राजधानी को आमेर से नए शहर जयपुर में स्थानांतरित कर दिया गया। इससे राजाओं की छतरियों का स्थल भी बदल गया। जयपुर शहर में राजाओं की छतरियां गैटोर में हैं।
आमेर में तीन बड़ी छतरियां एक बड़े चोकोर चबूतरे पर हरे सेंड स्टोन से बनी हुई हैं जिनमें प्रत्येक छतरी 20 कलात्मक खंभों से सुशोभित है। प्रत्येक छतरी में केंद्र में एक बड़ा गुंबद और चार किनारों पर छोटे गुंबद हैं। शेष छतरियां गोल चबूतरे पर हैं और इन्हें 12-12 खंभों से बनाया गया है, जिनपर एक बड़ा गुंबद है। राजा मानसिंह प्रथम जिन्होंने आमेर महल में दीवाने खास यानि शीश महल बनवाया था, उनकी छतरी सफेद संगमरमर से बनी है।
राजा भगवंत दास की छतरी (सन् 1573 से 1589)
पिता राजा भारमल की मौत के बाद राजा भगवंत दास सन 1573 में आमेर के राजा बने। वे सम्राट अकबर के दरबार में मनसबदार थे। इसके अलावा वे एक उत्कृष्ट योद्धा थे जिन्होंने आमेर से बाहार जाकर पश्चिमी और उत्तरी भारत में कई बड़ी जंगें लड़ी और उनमें विजय प्राप्त की। 1585 में उन्हें कश्मीर के सुल्तान यूसुफ खान के खिलाफ लड़ने के लिए भेजा गया जहां उनसे डरकर सुल्तान ने आत्मसमर्पण कर दिया इस उपलब्धि पर उनके नाम से सिक्का भी प्रचलित किया गया। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे राजा टोडरमल के साथ पंजाब के संयुक्त सूबेदार रहे। उनका निधन 13 नवंबर 1589 को लाहौर में हुआ।
राजा मान सिंह प्रथम की छतरी (सन् 1589 से 1614)
राजा भगवंत दास के पुत्र राजा मान सिंह प्रथम का जन्म 1550 में हुआ था। केवल बारह वर्ष की अल्पायु में ही सांभर में वे 1562 में अपने पिता के साथ सम्राट अकबर के शिविर में शामिल हो गए। वे मुगल सेना के सबसे विश्वसनीय सेनापतियों में से एक थे। इसी कारण बादशाह अकबर ने उन्हें मिर्जा की उपाधि से नवाजा। उन्हें मिर्जा राजा मानसिंह के नाम से भी जाना जाता है। अपने जीवन का अधिकतर वक्त रणभूमि में युद्धरत बिताने के बावजूद उन्हें स्थापत्य और निर्माण का शौक था। उन्होंने आमेर में अनेक मंदिरों, मस्जिदों, किलों और महलों का निर्माण कराया। मिर्जा राजा मानसिंह का निधन 1614 में दक्कन के इलिचपुर में हुआ।
मिर्जा राजा जयसिंह की छतरी (सन् 1621 से 1667)
मिर्जा राजा जयसिंह प्रथम कुंवर महासिंह के पुत्र थे। जब वे केवल दस साल के थे तब उनके पिता की मृत्यू हो गई और बाल्यावस्था में ही उन्हें 1621 में आमेर के सिंहासन पर बैठना पड़ा। उनकी मां ने उन्हें हर क्षेत्र में पारंगत करने में कोई कसर नहीं छोडी। वे फारसी, संस्कृत, हिन्दी और तुर्की भाषाओं में बहुत जल्द निपुण हो गए और मुगलों से उनकी भाषा में बातचीत करने में भी सक्षम हो गए। अपने ज्ञान और पराक्रम से उन्होंने मुगल सम्राटों को अपना दीवाना बना लिया था। उन्होंने बतौर सेनानायक मुगल सम्राटों की सेवा की और उनका साम्राज्य बढाने में सहयोग दिया। उन्होंने मुगल सम्राट जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब के साथ बीजापुर, गोलकुंडा और पुरंदर किला फतेह किया। इसके साथ ही विभिन्न अभियानों में मुगल सेनाओं का नेतृत्व भी किया। एक महान राजनेता होने के साथ साथ वे स्थापत्य और भवन निर्माण करवाने में भी रूचि रखते थे। उन्होंने अपने शासनकाल में आमेर महल का बड़ा हिस्सा और दीवान-ए-आम का निर्माण कराया। अपने समय के महान हिन्दी कवि बिहारी लाल उनके ही दरबारी कवि थे। खानदेश के बुहारनपुर में 28 अगस्त 1667 में उनका निधन हो गया।
राजा राम सिंह की छतरी (सन् 1667 से 1688)
राजा राम सिंह ने अपने पिता मिर्जा राजा जय सिंह की मौत के बाद 10 सितंबर 1667 को आमेर की गद्दी संभाली। उनकी माता का नाम चौहान रानी आनंद कुंवर था। वे राम सिंह को उनके पिता की तरह विद्वान और पराक्रमी बनाना चाहती थी। इसलिए उन्होंन रामसिंह को शिक्षा के उत्कृष्ट केंद्र वाराणसी में अध्ययन करने के लिए भेजा। अपने पिता की तरह राम सिंह भी संस्कृत, फारसी, और हिन्दी भाषाओं में निपुण थे। उन्होंने मुगल सम्राट की सेवा में पूर्व में असम के रंगमती का मोर्चा संभाला इसके बाद भारत की पश्चिमी सीमा पर कोहट के लिए भेजा गया। राजा राम सिंह एक सक्षम व्यवस्थापक थे। उन्होंने अपने शौर्य से मुश्किल क्षेत्र असम में स्थिति को नियंत्रण में किया। आम में आज भी राजा रामसिंह को उनकी बहादुरी के लिए याद किया जाता है। इतिहास में वे अपने सैन्य पराक्रम और दुर्लभ पुस्तकों व नक्शों के संग्रह के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने अपने नक्शानवीस से असम का नक्शा तैयार कराया था। अप्रैल 1688 में उनका निधन हो गया।
राजा विष्णु सिंह की छतरी (सन् 1688 से 1699)
राजा विष्णु सिंह कुंवर कृष्ण सिंह के इकलौते पुत्र थे। उन्होंने मात्र १७ वर्ष की आयु में आमेर का राज-पाट संभाला लेकिन वे अपने दादा राजा रामसिंह की तरह सफल नहीं रहे। उन्होंने आमेर पर सिर्फ एक दशक तक ही शासन किया। वे भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे। उन्हें आमेर पर शासन करने के लिए विष्णुपुर से बुलाया गया था लेकिन जल्द ही उनका मन राजपाट से ऊब गया और वे कृष्ण की आराधना करने बारह-बनास चले गए। मथुरा के जंगलों में उन्हें कृष्णलीला के दर्शन हुए और तभी से वे कृष्ण भक्ति के काव्यों और नाटकों की रचना करने लगे। बाद में उन्हें अफगानिस्तान भेजा गया जहां 31 दिसंबर 1699 को काबुल में उनका निधन हो गया।
फिल्मकारों का अट्रैक्शन
आमेर की ये कलात्मक छतरियां बहुत ही खूबसूरत हैं। अब फिलहाल घनी आबादी से घिरने के कारण इनकी खूबसूरती दिखाई देना कम हो गई है। साथ ही सरकार भी इनका रखरखाव ठीक ढंग से नहीं कर रही है। एक समय आमेर कस्बे से दिल्ली रोड की तरफ खुले में बनी ये छतरियां इतनी खूबसूरत लगती थी कि हिन्दी फिल्मों के डायरेक्टर यहां अपनी फिल्मों गीतों के कुछ हिस्से फिल्माने आते थे। मिथुन दा की ’बीस साल बाद’ फिल्म या फिर ’मुहाले मस्कीन…’ गीत आपने खूब सुना होगा। जिसके दृश्य इन्हीं छतरियों में फिल्माने के बाद बहुत रोचक हो गए थे। समय समय पर अब भी यहां फिल्मकार शूटिंग करते दिखाई पड़ जाते हैं।