तारागढ़ दुर्ग : बूंदी

अरावली की पहाड़ियों में स्थित सुरम्य किला
तारागढ़ दुर्ग अरावली की ऊंची पहाड़ियों में से एक नागपहाड़ी पर बना एक शानदार दुर्ग है। इसे बूंदी का किला भी कहते हैं। चौदहवीं सदी में बूंदी के संस्थापक राव देव हाड़ा ने इस विशाल और खूबसूरत दुर्ग का निर्माण कराया था। चौदहवीं सदी के मध्य में बना यह शानदार ऐतिहासिक दुर्ग आज भी बूंदी के पर्यटन को वैश्विक स्तर प्रदान करता है।
इस दुर्ग को बूंदी नरेश ने अपनी रियासत की शत्रुओं से पूरी तरह सुरक्षा के लिए ही निर्मित कराया था। इसलिए देश के सबसे सुरक्षित किलों में यह एक है। किले का निर्माण करने के लिए पहाड़ी के एक सिरे को पूरी तरह ढलवां बना दिया गया था और फिर इसे कगार पर बनाया गया। लंबे समय तक इस दुर्गम और दृढ सुरक्षित दुर्ग ने बूंदी रियासत की हिफाजत की।
जर्जर कर दिया समय ने
वक्त के थपेड़ों से जर्जर हालात तक पहुंच चुके इस भव्य दुर्ग का इतिहास बहुत रौशन है। भारत के दक्षिण पूर्व हाडौती इलाके में बना यह सबसे प्राचीन और विशालतम दुर्ग है। बूंदी को एक खास शहर बनाने में भी इस दुर्ग का खास योगदान है। तारागढ़ किले के कारण बूंदी एक पर्यटन शहर बन चुका है। हालांकि अपने जीवन के सात सौ वर्ष के इतिहास को देखने भोगने के बाद यह दुर्ग वृद्धावस्था में है लेकिन फिर भी अपने चारों ओर एक सफेद आभा लिए यह दुर्ग मिट्टी के ढेर पर पड़ी सोने की मोहर की तरह कीमती और मूल्यवान है।
तेरहवीं सदी का स्थापत्य
वर्तमान में हरी भरी पहाड़ियों और जंगली इलाके से घिरा यह दुर्ग मौजूदा दौर की उपेक्षा झेल रहा है। तारागढ़ दुर्ग कोटा से 39 किमी की दूरी पर स्थित है। इस शानदार दुर्ग का निर्माण 1354 में किया गया था। पहाड़ी की खड़ी ढलान पर बने इस दुर्ग में प्रवेश करने के लिए तीन विशाल द्वार बनाए गए हैं। इन्हें लक्ष्मी पोल, फूटा दरवाजा और गागुड़ी का फाटक के नाम से जाना जाता है। तेरहवीं चौदहवीं सदी में बने इन विशालकाय दरवाजों में अब तरेड़ें पड़ने लगी हैं और अंधिकांश भाग खंडहर हो गया है। इतिहास के सुनहरे दौर में यह ’स्टार फोर्ट’ सुरंगों के लिए बहुत प्रसिद्ध था। हालांकि अब ये सुरंगें बंद हो गई हैं और नक्शे के अभाव में इनकी खोज कर पाना अत्यंत जटिल काम है।
गर्भगुंजन तोप की महिमा
किले की भीम बुर्ज पर रखी ’गर्भ गुंजन’ तोप अपने विशाल आकार और मारकक्षमता से शत्रुओं के छक्के छुड़ाने का कार्य करती थी। आज भी यह तोप यहां रखी हुई है लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ प्रदर्शन की वस्तु बनकर रह गई है। कहा जाता है जब यह तोप चलती थी तब इसकी भयावह गर्जना से उदर में झंकार हो जाती थी। इसीलिए इसका नाम ’गर्भगुंजन’ रखा गया। सोलहवीं सदी में यह तोप कई मर्तबा गूंजी थी। भीम बुर्ज से अब बूंदी का शानदार विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। साथ ही बूंदी के हर कोने से भीम बुर्ज पर रखी यह तोप इतिहास की कहानी बयान करती गर्व से खड़ी दिखाई देती है।
जलाशयों का दुर्ग
यहां का चौहानगढ विशाल जलाशयों के कारण प्रसिद्ध है। इतनी ऊंचाई पर किले के परिसर में जलाशय होना दुर्ग की खूबसूरती को बढा देते हैं। यह उस समय अपनाई जाने वाली ’वॉटर हार्वेस्टिंग प्रणाली का बहुत ही उम्दा उदाहरण है। इन जलाशयों में वर्षा का जल सिंचित रखा जाता था और संकटकाल होने पर आम निवासियों की जरूरत के लिए पानी का इस्तेमाल किया जाता था। जलाशयों का आधार चट्टानी होने के कारण पानी सालभर यहां एकत्र रहता था। दुर्ग के परिसर में रानी महल एक छोटा और खूबसूरत महल है जो राजाओं की रानियों और प्रेमिकाओं के रहने के काम आता था। यह खूबसूरत महल अपनी शानदार भित्ति चित्रकला और खिडकियों पर कांच के कार्य के कारण पहचाना जाता है। उचित रख रखाव के अभाव में कांच के रंग फीके पड़ने लगे हैं। दुर्ग परिसर में ही मिरान साबह की दरगाह भी है। मिरान साहब बूंदी दुर्ग में एक वफादार सिपहसालार थे और एक मुठभेड़ में उन्होंने दुर्ग की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति दे दी थी, उन्हीं की स्मृति में यह दरगाह बनाई गई।
पृथ्वीराज चौहान का स्मारक
दुर्ग के रास्ते में ही हाडौती क्षेत्र के सबसे शूरवीर राजपूत राजा पृथ्वीराज चौहान का स्मारक भी बना हुआ है। इस स्मारक का निर्माण चौहान राज की शूरवीरता को चिरकाल तक सम्मान देने के लिए कराया गया था। इस स्मारक को सप्ताह के सातों दिन सुबह 7 से 9 बजे तक देखा जा सकता है।
तारागढ़ का इतिहास
बूंदी की चौकसी के लिए शहर के मुकुट भांति खड़े इस शानदार दुर्ग को राजस्थान के इतिहास लेखाकार कर्नल जेम्स टॉड ने राजस्थान का गहना कहा था। बूंदी शहर की स्थापना हाड़ा चौहान राजपूत कबीले के राज देवा ने 1341 में की थी। इसके बाद विभिन्न शासकों ने बूंदी और तारागढ़ पर राज किया। सोलहवीं सदी में तारागढ़ में कई निर्माण कार्य कराए गए। अपनी निर्मिति के बाद लगातार 200 वर्ष तक इस किले में विकास और निर्माण के कई कार्य कराए गए, जिससे यह दुर्ग फैलता गया। राजस्थान के अन्य किलों की तुलना में इस दुर्ग पर मुगल स्थापत्य कला का कोई खास प्रभाव दिखाई नहीं देता। यह दुर्ग ठेठ राजपूती स्थापत्य व भवन निर्माण कला से बना हुआ है। गढ और महलों के शीर्ष व गुंबद, छतें, मंदिरों के मंडप, जगमोहन, स्तंभ आदि खालिस राजपूत शैली के अप्रतिम और दुर्लभ उदाहरण हैं। कई स्थानों पर स्थापत्य में दर्शाए हाथी और कमल के फूल राजपूती स्थापत्य के ही प्रतीक हैं। एक खास बात और है जो इस किले को राजस्थान के अन्य दुर्गों से अलग करती है। राजस्थान के अधिकांश दुर्ग पीले बलुआ पत्थर से बने हैं। जबकि इस दुर्ग के निर्माण में बलुआ पत्थर का प्रयोग आंशिक तौर पर ही किया गया है। स्थानीय क्षेत्र में उत्खनित होने वाले जटिल संगठनयुक्त हरे रंग के टेढ़ा पत्थर का प्रयोग ज्यादा हुआ है। हालांकि यह पत्थर बारीक नक्काशी के लिए नहीं जाना जाता लेकिन इस पत्थर पर तारागढ दुर्ग में नक्काशी देखकर इतिहासकारों और स्थापत्य के जानकारों को भी हैरानी होती है। दुर्ग के भित्ति चित्र भी बहुत प्रभावी हैं।
आकर्षक खूबसूरती
महल के द्वार हाथी पोल पर बनी विशाल हाथियों की जोड़ी भी पर्यटकों को आकर्षित करती है। दुर्ग के अन्य आकर्षणों में छत्तर महल भी है, 1660 में बने इस महल की खूबसूरती लाजवाब है। इसके अलावा यहां स्थित चित्रशाला, फांसीउद्यान और तोरणद्वार गैलरी भी विशेष हैं। इन्हें 1748 से 1770 के दरमियान बनवाया गया था। इन स्थानों पर राजपूत चित्रकला शैली के भित्ति चित्र बहुत ही मनमोहक हैं। धार्मिक अनुष्ठानों, शिकार और राजसी मनोरंजन को बयां करते ये चित्र ऐतिहासिक दस्तावेज हैं।
कैसे पहुंचें तारागढ़ फोर्ट
तारागढ़ पहुंचने के लिए कोटा से बस द्वारा सफर किया जा सकता है। बूंदी जयपुर और कोटा के बीच नेशनल हाइवे नंबर 12 पर स्थित है। कोटा से बूंदी का रास्ता महज एक घंटे का है और हर पांच मिनट में कोटा से बूंदी के लिए बसें चलती हैं। जयपुर से भी बूंदी के लिए बसें चलती हैं और यह सफर सात-आठ घंटे का है।
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