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राजस्थान में जल संरक्षण : परंपरागत उपाय

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एक ताजा और भयावह खबर यह है कि राजस्थान का एक चौथाई हिस्सा पूरी तरह रेगिस्तान में तब्दील हो गया है। साफ है कि राजस्थान को हरा भरा बनाने का सपना अभी भी सिर्फ उनींदी आंखों से देखा जा रहा है। कागजों पर भले राजस्थान तेजी से विकास कर रहा राज्य है लेकिन सच ये भी है कि राजस्थान के संसाधन तेज रफ्तार से खत्म होते जा रहे हैं। राजस्थान का वन प्रदेश, पहाड़, नदियां, झीलें और जलस्रोत घोर संकट की घड़ी से गुजर रहे हैं।

एक विख्यात उक्ति है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए होगा। शहरों के बस्ताई इलाकों में ये महायुद्ध अभी भी देखा जा सकता है। बड़ा प्रश्न यह है कि लगातार बढ़ रही जनसंख्या के अनुपात में जलस्रोत कितने बढ रहे हैं? क्या वे नष्ट और लुप्त तो नहीं हो रहे? तेजी से शहरीकरण हो रहा है, इमारतों के जंगल खड़े हो रहे हैं लेकिन प्राकृतिक स्रोतों का लगातार दोहन हो रहा है और स्रोत सीमित दर सीमित हो रहे हैं।

पानी के मामले में गरीब कहे जाने वाले राज्य राजस्थान में अब पारंपरिक और प्राचीन जल संरक्षण प्रणालियों के पुनरूद्धार की जरूरत है। राजस्थान भारत के सबसे सूखे राज्यों में से एक है और यहां सालाना 100 मिमि से भी कम वर्षा होती है। थार रेगिस्तान की इस भूमि पर गर्मियों का तापमान 48 के पार पहुंच जाता है। हजारों साल से यह रेगिस्तान यहीं था। फिर ऐसी कौन सी तकनीकें थी जिनसे यहां रहने वाले लोगों को पीने, खेत सींचने और भवन, महल, दुर्ग बनाने के लिए पर्याप्त जल मिल जाया करता था? जवाब है, सैकड़ों छोटी, मध्यम और सरल तकनीकें। जिनसे यहां  के निवासी सीमित जल का बेहतर उपयोग और कुशल संरक्षण करना जानते थे। अपनी परंपराओं से कट कर हमने यह ज्ञान भी लगभग खो दिया है। इन प्राचीन जल संरक्षण  तकनीकों की हमें एक बार फिर सख्त आवश्यकता है। क्योंकि हमारे पास विकल्प न के बराबर हैं। अगर हम सही प्रकार से इन प्राचीन विधियों का प्रयोग कर सके तो आने वाली पीढियों को और सूखे से जूझ रहे प्रदेशवासियों के हित में कुछ अच्छा कर पाएंगे।

राजस्थान में विज्ञान और पर्यावरण केंद्र (सीएसई) और थार सोशल डवलपमेंट सोसायटी (टीआईएसडीएस) आदि संस्थाएं मिलकर राजस्थान की परंपरागत जल संरक्षण प्रणालियों को पुनर्जीवित करने के कार्य में जुटी हैं। परंपरा और विज्ञान के इस  मिले जुले प्रभाव से पुराने तरीकों को फिर से लागू करने की पहल की गई है। अनुदान पर आधारित यह छोटा सा प्रयास 2003 से 2008 के बीच किया गया और अप्रत्याशित रूप से सफल भी रहा। परियोजना ने राजस्थान के रेगिस्तान में बसे कई गांवों की तकदीर बदल  दी है।

परियोजना के तहत गांव वासियों की मदद से गांव के जोहड़ों की खुदाई करके चारों ओर पाल बनाई गई। इसके बाद बारिश का वह पानी जो बह जाया करता था, इन जोहड़ों में एकत्र होने लगा और कई दिनों तक पानी की बहुत सी समस्याओं का समाधान हो गया। राजस्थान में मानसून के अलावा मावठ भी  होती है। कुछ बारिशों में ये छोटे जोहड़े कुछ महिनों तक मवेशियों, भवन निर्माण, सिंचाई और अन्य घरेलू कार्यों में पानी की जरूरत को पूरा कर देता है। खास बात ये है कि इन जोहड़ों से भूजल स्तर भी उठता है। एक गैर सरकारी संगठन ’तरुण भारत संघ’ ने राजस्थान के अलवर जिले में इस परियोजना पर बड़े पैमाने पर काम किया और गांव गांव को पानी उपलब्ध करा दिया।

वर्तमान में हम इसलिए जल संकट से जूझ रहे हैं क्योंकि हमने हमारी समृद्ध पारंपरिक जल संरक्षण तकनीकों से कट गए हैं। इन प्राचीन तकनीकों को प्रयोग कर हम आबादी के 70 प्रतिशत भाग को जल संकट से बचा सकते हैं। तकनीक के अभाव में हम पेयजल का उपयोग ही हर कार्य के लिए कर रहे हैं। चाहे वह भवन निर्माण हो या फिर पशुओं या वाहनों को साफ करने के लिए। सीआईआई जैसे संगठन इस दिशा में कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध हो गए हैं और विजन 2022 लेकर चल रहे हैं। विशिष्ट बात यह भी है कि ’जोहड’ जैसे प्राचीन स्रोतों के पुनरुद्धार से 33 प्रतिशत वन क्षेत्र में इजाफा भी हुआ है। अलवर इसका उदाहरण है।

राजस्थान में जल की कमी के चलते पलायन बड़े पैमाने पर देखा जाता है। प्राचीन परंपराओं से जल के सरंक्षण से यह पलायन रुकेगा और राजस्थान का सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचा मजबूत होगा। कृषि के क्षेत्र में भी प्राचीन परंपरागत तकनीकें राजस्थान का भाग्य बदल सकती है।

राजस्थान ही नहीं पूरा विश्व इस समय जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। ऐसे में रेतीले इलाकों में बाढ आना, मानसून का सूखा गुजरना, सर्दी के मौसम में वर्षा जैसे घटनाक्रम सामने आ रहे हैं। ऐसे में मौसम की अनिश्चितता भी संकेत करती है कि हमें जल संरक्षण की हमारी पारंपरिक तकनीकों को अपनाकर नई राह का सृजन करना होगा।

अब जिक्र करते हैं पार प्रणाली का। पश्चिमी राजस्थान में आज भी इस प्रणाली का उपयोग किया जाता है और लोग इसके अभ्यस्त हैं। इस प्रणाली में वर्षा के बहते हुए जल का रुख पक्की कुई में जोड दिया जाता है। यह कुंई बहुत संकडी होती है और कुए की तरह 6 से 15 मीटर तक गहरी होती है। संकडी होने के कारण लंबे समय तक इस कुई में सुरक्षित रहता है और तेज तापमान से भी भाप बनकर नहीं उडता। स्थानीय भाषा में इसे ’पाताली पानी’ भी कहा जाता है। जैसलमेर जैसे सूखे जिलों में इसका प्रयोग बड़े पैमाने पर किया जाता है।

राजस्थान के परंपरागत जलस्रोत-

तालाब व बांध

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तालाब और बांध में एक अंतर है। तालाब प्राकृतिक जल स्रोत है और बांध कृत्रिम। भूमि का वह निचला भाग जहां वर्षा जल एकत्र हो जाता है, तालाब बन जाता  है, जबकि बांध में वर्षा के बहते जल को मिट्टी की दीवारें बनाकर बहने से रोका जाता है। बुंदेलखंड क्षेत्र के टीकमगढ में ऐसे तालाबों को बहुतायत है जबकि उदयपुर में बांध के रूप में कृत्रिम झीलें विख्यात हैं। छोटी कृत्रिम झीलें जहां तालाब कहलाती हैं वहीं बड़ी कृत्रिम झीलों को सागर या समंद कहा जाता है। ये तालाब और झीलें बहुत महत्वपूर्ण होंती हैं और सिर्फ पेयजल ही नहीं बल्कि कई बहुद्देशीय मांगों की पूर्ति करती हैं। जैसे उदयपुर में आज ये झीलें पर्यटन को बढ़ावा देने का मुख्य कारक बन गई हैं।

कुआ

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राजस्थान के पूर्वी इलाकों और मेवाड़ क्षेत्र में पारंपरिक जलस्रोत कुआ सिंचाई का महत्वपूर्ण साधन रहा है। अरावली क्षेत्र में तो आज भी कूए पेयजल और सिंचाई का साधन हैं। पुराने समय में कूएं से सिंचाई करने के लिए कूए की मुंडेर को ऊंचा रखा जाता था, उसके करीब एक खेली बनाई जाती थी। कूए से रहट के माध्यम से पानी निकाला जाता था। रहट चमड़े का बना एक विशाल पात्र जैसा होता था। रहट को कूए से बैलों से खिंचवाया जाता था। रहट से निकले पानी को खेली में डाला जाता था और यह पानी धोरों के माध्यम से खेत में पहुंचता था। कूएं से पीने का पानी भी चकरी से खींचकर निकाला जाता था। करीब तीन से चार दशक पहले पूर्वी राजस्थान में कूए का  भूजल स्तर पांच या छह मीटर होता था, लेकिन अब कुओं का जल 20 मीटर से भी नीचे चला गया है।

जोहड़

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जोहड मिट्टी के छोट डैम की तरह होते हैं। वर्षा जल के बहाव क्षेत्र में बांध बनाकर इस पानी को रोका जाता है और छोटे तालाब के रूप में एकत्र कर लिया जाता है। जोहड बनाकर जल संरक्षण का कार्यक्रम सोलह साल पहले अलवर से आरंभ हुआ था। आज यह राजस्थान के 650 गांवों में पहुंच चुका है और तीन हजार से ज्यादा जोहडों का निर्माण हो चुका है। अलवर में इन जोहड़ों के प्रभाव से भूजल स्तर में 6 मीटर तक की बढोतरी देखी गई है। साथ ही जिले के वन प्रदेश में भी 33 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यह कोई बहुत बड़ा विज्ञान नहीं है। यहां तक जोहड बनाने के लिए मजदूरों का इस्तेमाल भी नहीं किया गया। गांव वालों की मदद से इन जोहडों का निर्माण किया गया है। आश्चर्य है कि कई सूखी नदियां भूजल उठने से बारहमासी नदियां बन गई हैं।

पाट

मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में भिटाडा गांव में अद्वितीय पाट प्रणाली विकसित की गई है। इसके तहत तेज ढलान पर बहने वाली द्रुतगामी नदियों में कट लगाकर पानी संरक्षित कर लिया जाता है और  उसका इस्तेमाल सिंचाई और अन्य सुविधाओं के लिए किया जाता है। खास बात यह है कि स्थानीय लोगों ने नदी के बहाव की भी चिंता की है और अपने इलाकों को अपनी आवश्यकतानुसार विशष रूप से तैयार किया है। पाटों को लीकप्रूफ बनाने के लिए सागौन के पत्तों और कीचड से एक अस्तर तैयार किया जाता है। नदी से पहाडी ढलान को पाट की नाली बनाकर अपने खेतों तक धाराएं ले जाई जाती हैं। मिट्टी से बनी ये नालियां बारिश आने पर अपने आप नष्ट हो जाती हैं।

नाड़ा या बंधा

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ये परंपरागत स्रोत थार के रेगिस्तान में मेवाड़ क्षेत्र में पाए जाते हैं। मानसून के दौरान बहते जल को एक नाली के रूप में पत्थर के बांध तक ले जाया जाता है जिसमें इस पानी को एकत्र किया जाता है। ठोस सतही परत पानी को जमीन में नहीं सोखने देती है और काफी समय तक पानी का उपयोग विभिन्न जरूरतों के लिए किया जाता है। राजस्थान में आज भी थार के रेगिस्तान में इन जल स्रोतों के अवशेष नालियों के रूप में देखे जा सकते हैं। भूमिगत जल के उपयोग के कारण अब इनका उपयोग कम हो गया है।

रपट

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रपट भी वर्षा के बहते जल को संरक्षित करने से संबंधित है। वर्षा के बहते जल को किसी ढके हुए टैंक में संग्रहीत कर लिया जाता है। इस जल का उपयोग लंबे समय तक किया जा सकता है। रपट का मुंह काफी छोटा होता है और टैंक के ढक्कन जैसा होता है। भीतर से ये टैंक बहुत विशाल हो सकते हैं। टैंक को सुरक्षा और पानी की स्वच्छता के मद्देनजर ढका जाता है।

चंदेल टैंक

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चंदेल टैंक पहाडी गांवों में बनाया जा सकता है। पहाड़ी पर वर्षा जल के बहाव पर एक मेढ या मजबूत कच्ची मिट्टी की दीवार बनाकर पानी का टांका बना लिया जाता है। अगली बारिश तक यह पानी पेयजल, पशुपालन, सिंचाई और अन्य कामों में लिया जा सकता है। पहाडी घाटियां इस तरह के टांके बनाने के लिए आदर्श होती है। राजस्थान के मध्यभाग में अरावली की श्रेणियों में बसे कई गांवों में इस तरह के टैंक देखने को मिलते हैं। इनमें लंबे समय तक पानीं संजोया जा सकता है। क्योंकि इतना तल पहाड़ी होने के कारण पानी जमीन में नहीं रिसता।

बुंदेला टैंक

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इस तरह टांकों का निर्माण ज्यादा पानी की मांग के चलते किया गया। यह टांका चंदेला टांके से बड़ा होता है और इसकी पाल का निर्माण पत्थर की दीवार, पवैलियन आदि बनाकर किया जाता है। राजस्थान के कुछ बड़े कस्बों व नगरों में लोगों ने स्वप्रेरणा से जल समस्या का निदान करने के लिए बुंदेला टांकों का निर्माण किया था। पहाडों की ढलवां घाटी पर बांध बनाकर पानी के स्रोत को पुख्ता तालाब की शक्ल दे दी जाती है। जयपुर के आमेर में सागर तालाब इसी तरह के बांध हैं।

कुण्ड

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पश्चिमी राजस्थान और गुजरात के कुछ इलाकों में कुण्ड देखने के को मिलते हैं। कुण्ड निजी भी होते हैं और सार्वजनिक भी। निजी कुण्ड पानी के ज्यादा संग्रहण के लिए घर में आवश्यकतानुसार गड्ढा खोदकर उसे चूने इत्यादि से पक्का कर ऊपर गुंबद या ढक्कन बनाकर ढक दिया जाता था। पानी को साफ स्वच्छ और उपयोग लायक बनाए रखने के लिए इसके तल में राख और चूना भी लगाया जाता था ताकि पानी में कीटाणु आदि न पनपें। कुंड घर के वॉटर टैंक की तरह होता था। सार्वजनिक कुंड ढके हुए भी होते थे और खुले भी कुंडों का इस्तेमाल पानी पीने, नहाने आदि में किया जाता था। खुले कुंड गर्मियों में स्वीमिंग पूल का भी काम करते थे और राहगीरों को तरोताजा होने का मौका देते थे। अलवर के पास तालवृक्ष गांव में ठंडे और गर्म पानी के कुंड मिलते हैं। कुंडों की गहराई आवश्यकता और उपयोग पर निर्भर करती है। इनकी गहराई इतनी सी भी हो सकती है कि झुककर किसी पात्र से इनमें से जल निकाला जा सके।

बावड़ी

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राजस्थान में किसी समय बावड़ियों को विशेष महत्व था। इन बावड़ियों को स्टैपवेल कहा जाता है। कुछ बावड़ियां आज गुजरी सदियों के बेहतरीन स्थापत्य के नमूने बन चुकी हैं। जयपुर के नजदीकी जिले दौसा में आभानेरी स्थित चांद बावड़ी इसका बेहतरीन प्रमाण है। इसके अलावा टोंक के टोडारायसिंह में तीन सौ से अधिक बावड़ियां हैं। राजस्थान जैसे सूखे इलाके में पानी को अधिक दिनों तक संरक्षित रखने और पशुओं को भी पानी की जद में लाने के लिए इन बावड़ियों का निर्माण किया गया। कुए से एक आदमी पानी निकाल कर पी सकता है लेकिन पशु क्या करेंगे। बावड़ियों में सीढ़ियों की सुविधा बनाई गई ताकि पशु भी सीढ़ियों से उतरकर पानी पी सकें। कुछ बावड़ियों का निर्माण इस प्रकार किया गया कि पानी सीधे सूर्य के संपर्क में नहीं आता। इससे वाष्पीकरण की समस्या से भी निजात मिल गई। साथ ही बावड़ी पर स्नान कर रही महिलाओं के लिए भी यह सुविधाजन्य होता था। अलवर में तालवृक्ष में ऐसी बावड़ियां मिल जाती हैं। बावड़ियां संग्रहीत सार्वजनिक जल का शानदार नमूना हैं। बारिश के पानी को सिंचित करने की यह उस समय बहुत ही निपुण वैज्ञानिक विधि थी।

झालरा

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झालरा किसी नदी या तालाब के पास आयताकार टैंक होता था जो धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए बनाया जाता था। इसके अलावा भी ये झालरा कई प्रकार से काम में आया करते थे। राजस्थान और गुजरात में इन मानव निर्मित टैंकों की बहुतायत है। कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिनमें पेयजल का उपयोग हम नहीं करते। झालरा ऐसे ही कामों को अंजाम देने और पेयजल को बचाए रखने के लिए निर्मित किए जाते थे। जोधपुर शहर के आसपास आठ शानदार झालरा आज भी आकर्षित करते हैं। इनमें सबसे पुराना झालरा 1660 में बलर महामंदिर झालरा है।

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