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‌‌जयपुरी कला : मिट्टी के बर्तन

जयपुर कला का शहर है। यहां उपयोग में आने वाली चीजों में भी कलात्मकता समाई हुई है। जयपुर के बाजार, घर, मंदिर, किले और रीति रिवाजों तक में यह कला गहराई से पैठी है। इसी कारण जयपुर कलाओं की नगरी भी कहलाती है। खासतौर से हस्तकला में तो जयपुर का कोई सानी नहीं है। मिट्टी के बर्तन से लेकर सोने के आभूषण तक में जयपुर अपनी कला का लोहा मनवाता है। जयपुर में बड़े पैमाने पर मिट्टी के बर्तन खरीदे जाते हैं और इलैक्ट्रॉनिक उपकरणों से ज्यादा लोग इन पर आज भी भरोसा करते हैं। स्वाद और सेहत के मामले में भी मिट्टी के बर्तन उपकरणों का पछाड़ते हैं।

सर्वविदित है कि जयपुर के संस्थापक महाराजा जयसिंह जयपुर को आर्थिक आधार पर एक सशक्त शहर बनाना चाहते थे। इसी कारण मुख्य बाजारों में उन्होंने सिर्फ दुकानों को प्राथमिकता दी। इसके अलावा बाजारों से सटे मुहल्लों में उन्होंने हुनरमंद लोगों को बसाया। इन हुनरमंद लोगों की पूरी एक बिरादरी होती थी जो सामूहिक रूप से कला के काम में जुटे होते थे। इन्हीं के नाम पर आज भी जयपुर के वॉलक्षेत्र में कई मुहल्लों के नाम सुनाई पड़ जाते हैं। जैसे ठठेरों का रास्ता, पन्नीगरान का मोहल्ला, दर्जियों का मोहल्ला, कुम्हारों का मोहल्ला, जौहरी बाजार, मूर्तिकारों की गली, भट्टों की गली आदि। जयपुर में मिट्टी के बर्तनों का काम अधिकतर कुम्हारों के मोहल्ले में होता था लेकिन आज मिट्टी के बर्तनों का काम करने वाले कुशल हस्तकार शहर में बिखर गए हैं। पर परंपरागत काम जारी है।

जयपुरी सुराही

जयपुरी सुराही का निर्माण भी जयपुर स्थापना के समय से होता आ रहा है। गर्मियों में जयपुरी सुराही का पानी आज भी पुराने लोगों को बहुत रास आता है। आज भी कई घरों में फ्रिज के पानी के स्थान पर इन जयपुरी मटकों और सुराही का इस्तेमाल किया जाता है। दिखने में भी जयपुरी सुराही बहुत कलात्मक होती है।  खास बात ये कि इसका पानी गर्मी में फ्रिज के पानी की तरह नुकसान भी नहीं करता। गर्मियां आरंभ होते ही जयपुर में कई स्थानों पर कलात्मक सुराहियां बिक्री के लिए आ जाती हैं। सुराही के साथ साथ लाल और काली मिट्टी के मटके और अन्य सामान भी बाजार में उपलब्ध होने लगता है। शहर में चौडा रास्ता और एमडी रोड पर ये सुराही और मटके आराम से खरीदे जा सकते हैं। बाजार में लोगों को मटकों और सुराहियों की खास कलात्मकता विशेष आकर्षित करती है। विशेष बात ये है कि ट्रेंड और फैशन बदलने के साथ ही इन मटकों का रूप, आकार और विशेषता भी बदल जाती है। नहीं बदलता तो इनका ठंडा और मीठा पानी। जयपुरी सुराही हर आकार में बाजार पर उपलब्ध हो जाती है और इसपर बारीक कलाकारी भी की जाती है। सुराही का मुंह बहुत ही संकडा होता है, इसे उठाने के लिए दो हत्थे भी बनाए जाते हैं और पानी पीने के लिए रामझारे की तरह एक नली भी छोड़ी जाती है। इनकी भीनी भीनी खुशबू वाला पानी जयपुरवासियों को फ्रिज और वॉटरकूलर से भी ज्यादा पसंद आता है। जयपुरी मटके और सुराही की कीमत 30 से 100 रूपए तक है।

नल वाले मटके

मिट्टी के बर्तनों में भी कलात्मक प्रयोग करना जयपुर के कारीगरों की पहचान है। उपयोगिता के आधार पर ये बदलाव किए जाते हैं। जयपुर के मटकों पर भी कारीगर अपनी कला की छाप छोड़ने के साथ उपयोगिता का भी खयाल रखते हैं। गर्मी बढने के साथ ही शहर के फुटपाथों पर मटके भी नजर आने लगते हैं। जयपुर में लाल और काली मिट्टी के मटके बनाए जाते हैं। साधारण गोल आकार के मटकों के साथ अब बाजार में नल लगे मटके भी खूब खरीदे जाते हैं। नल लगे मटकों को खास तौर से लंबा और अंडाकार रूप दिया जाता है। वह सपाट जमीन पर टिक सके इसके लिए उसकी सतह भी सपाट बनाई जाती है और आधार पर नल भी लगाया जाता है। बाजार में इन मटकों की कीमत 50 से 100 रूपए है। इस तरह के मटके जयपुर में बहुत पसंद किए जाते हैं।

कुल्हड़

जयपुर में आपने कुल्हड वाली लस्सी का आनंद जरूर लिया होगा। कांच, स्टील या कागज के गिलास की अपेक्षा कुल्हड में लस्सी या चाय पीने का मजा ही अलग है। मिट्टी के स्वाद से लबरेल ये कुल्हड भी जयपुर में बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किए जाते हैं। मिट्टी से बने बर्तनों की सबसे बड़ी विशेषता है इनका पूरी तरह शुद्ध होना। चिकनी मिट्टी से बनाए जाने के बाद इन्हें आग में तपाया जाता है। अमूमन इन पात्रों का इस्तेमाल ज्यूस की दुकानों या चाय की थडियों पर किया जाता है। साधारण गिलासों को गंदे पानी से ही धोया जाता है और धोने की तरीका भी ठीक नहीं होता। जबकि कुल्हड में एक बार ज्यूस या लस्सी पीने के बाद इसे तोड़ दिया जाता है। शादियों में भी इन कुल्हडों का बड़ा इस्तेमाल होता है। कुल्हड में दूध, रबड़ी, कुल्फी, लस्सी और ठंडाई पीने का अपना मजा है। बाजार में इन कुल्हडों की कीमत 2 से 5 रूपए है।

गुल्लक

हालांकि बच्चों को गुल्लक खरीदने से ज्यादा तोड़ने का शौक होता है। लेकिन फिर भी जयपुर में बड़े पैमाने पर मिट्टी की गुल्लकें भी पसंद की जाती है। जयपुर के घर घर में बच्चों की ये मिट्टी की गुल्लकें मिल जाएंगी। कला के हुनरमंद कारीगरों ने इन गुल्लकों के निर्माण में भी पूरी निपुणता से कार्य किया है। बाजार में कई आकारों और रूपों वाली गुल्लकें बच्चों को खूब लुभाती हैं। पहले ये गुल्लकें साधारण गोलाकार में होती थी, पर अब ये शंख के आकार की, सिलेण्डर के आकार और मानवाकृतियों के आकार में भी उपलब्ध हैं।

ईसर गणगौर

मिट्टी के बर्तनों व कलात्मक मूर्तियों में जयपुर में सर्वाधिक बिकने वाली वस्तु है ईसर गणगौर। ईसर गणगौर नवविवाहित महिलाओं द्वारा तीज और गणगौर के मौके पर पूजने के काम आते हैं। ईसर शिव का प्रतीक है और गणगौर गौरी यानि पार्वती का प्रतीक है। ईसर गणगौर के अलावा जयपुर में सेठ सेठानी भी बहुत ज्यादा खरीदे जाते हैं। ईसर गणगौर और सेठ सेठानी की कीमत 30 रूपए से 100 रूपए जोडे तक होती है।

इन वस्तुओं के अलावा भी त्योंहार विशेष पर जयपुर में विभिन्न मिट्टी की वस्तुओं का महत्व बढ जाता है। जैसे दीवाली के आसपास दीयों, लैंपों और सुराहियों की खरीद बढ जाती है, शादियों के सीजन में जयगढों, छोटी मटकियों और कलशों की बिक्री तेज हो जाती है। इसके अलावा कलात्मक फूलदान, मूर्तियां व अन्य वस्तुएं भी जयपुरवासियों को खूब पसंद आती हैं। जयपुर अपनी कलाओं से जड़ से जुड़ा शहर है। वाकई जयपुरवासी अपनी परंपराओं से जुड़ जाना पालने में ही सीख लेते हैं।


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